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(८५८)
अष्टाङ्गहृदयेपिप्पलीसर्वजं शूलं विदारी कुचिकर्णकः॥२५॥ एषामसाध्यायाप्यैका तन्त्रिकान्यांस्तु साधयेत् ॥
पंचविंशतिरित्युक्ताः कर्णरोगा विभागतः॥२६॥ और कर्णपिप्पली और सन्निपातसे उपजा कर्णशूल और विदारिका कुचिकर्णक ॥ २५ ॥ ये रोग सब कानके रोगोंमें असाध्यहैं, और तंत्रिकारोग कष्टसाध्यहै, और अन्य बीस कानके रोग साध्यहैं, ऐसे विभागसे २५ कानके रोग कहे ॥ २६ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकाया
मुत्तरस्थाने सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥
अष्टादशोऽध्यायः। अथातः कर्णरोगप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर कर्णरोगप्रतिषेधनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । कर्णशूले पवनजे पिबेद्रात्रौ रसाशितः ॥ वातघ्नसाधितं सर्पिः कर्ण स्विन्नं च पूरयेत्॥१॥पत्राणां पृथगश्वत्थबिल्वार्केरण्डजन्मनाम् ॥ तैलसिन्धूत्थदिग्धानां स्विन्नानां पुटपाकतः॥२॥ रसैः कवोष्णैस्तद्वच्च मूलकस्यारलोरपि ॥ वातसे उपजे कर्णशूलमें मांसके रसके साथ भोजन करनेवाला मनुष्य वातको नाशनेवाले औषधोंकरके साधित किये घतको रात्रिमें पी और स्विन्नकिये कानको वक्ष्यमाण रसोंसे परितकरै ॥१॥ पृथक् पृथक् पिप्पल बेलपत्र आक अरंडसे उपजेहुए तेल और सेंधानमकसे लेपितकिये और पुटपाककी विधिसे स्वेदितकिये पत्तोंके ॥ २॥ कछुक गर्मकिये रमोंकरके अथवा सहोजनाके तथा सोनापाठाके रससे कानको पूरितकरै ।।
गुणे वातहरेऽम्लेषु मूत्रेषु च विपाचितः॥३॥
महास्नेहो द्रुतं हन्ति सुतीव्रामपि वेदनाम् ॥ और वातको नाशनेवाले औषधोंके समूहमें और कांजियोंमें और गोमूत्रआदियों में विशेषकरके पकायाहुआ ॥ ३ ॥ महास्नेह तत्काल कानकी तीव्रपीडाको नाशताहै ॥
महतः पञ्चमूलस्य काष्ठात्क्षौमेण वेष्टितात् ॥ ४॥
तैलसिक्तात्प्रदीप्तामात्स्नेहः सद्यो रुजापहः॥ और रेशमीवस्त्रसे वेष्टितकिये बडे पंचमूलके काष्ठको ॥४॥ तेलमें भिगो और अग्निसे जलाय अप्रभागसे टपकाहुआ तेल तत्काल कानकी पीडाको हरताहै ।।
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