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(८५०)
अष्टाङ्गहृदयेऔर घृतमें भुनाहुआ और चूर्णितकिया और वस्त्रमें स्थित श्वत लोध ॥ ३२ ॥ गरम पानीसे मार्दतकर किया इसका सेक अतिशयकरके शूलको हरताहै ।।
दार्वीप्रपौण्डरीकस्य काथो वाश्चोतने हितः॥३३॥ अथवा दारुहलदी और पौंडोका काथ आश्चोतनमें हितहै ॥ ३३ ॥
सन्धावाञ्च प्रयुञ्जीत घर्षरागाश्रुरुग्घरान् ॥३४॥ धर्ष राग पीडा आंशुको नाशनेवाले संधावोंको प्रयुक्तकरै ॥ ३४ ॥ तानं लोहे मूत्रघृष्टं प्रयुक्तं नेत्रे सर्पिधुपितं वेदनानम् ॥ ताम्रघृष्टो गव्यदनः सरोवा युक्तः कृष्णासैन्धवाभ्यां वारष्ठः॥३५॥
लोहाके पात्रमें गोमूत्रसे घिसाहुआ तांबा और धूपितकिया घृत नेत्रमें प्रयुक्त किया जावे तो पीडाको हरताहै अथवा तांबेकरके घिसाहुआ गायका दही केसरको पीपल सेंधानमकसे संयुक्तकर नेत्रमें प्रयुक्तकरे तो पीडाका नाश होताहै ।। ३५ ॥
शंखं ताने स्तन्यपृष्टं घृताक्तैः शम्याः पत्रैधूपितं तद्यवैश्च ॥ नेत्रे युक्तं हन्ति सन्धावसंजंक्षिप्रं घर्ष वेदनां चातितीव्राम्॥३६॥
और शंखको तांबाके पात्रमें स्त्रीके दूधसे घर्षितकर घृतसे युक्त कर शमीके पत्रसे और यवोंसे धूपितकर नेत्रों में युक्तकिया यह योग शीघ्रही संधाव घर्ष और अत्यंत तीव्र वेदनाको नाश करताहै ३६
उदुम्बरफलं लोहघृष्टं स्तन्येन धूपितम् ॥
साज्यैः शमीच्छदैर्दाहशूलरागाश्रुहर्षजित् ॥ ३७॥ गूलरके फलको लोहके पात्रमें नारीके दूधसे घिसे और घृतसे संयुक्त करी जांटीके पत्तोंसे धूपितकरै यह दाह शूल राग अश्रु हर्षको जीतताहै ॥ ३७ ॥
शिग्रुपल्लवनिर्यासः सुघृष्टस्ताम्रसम्पुटे ॥
घृतेन धूपितो हन्ति शोफघर्षाश्रुवेदनाः॥३८॥ तांबाके संपुटमें अच्छीतरह घृष्टकिये सहोजनाके पत्तों के निर्यासको घृतसे धूपित करे, यह शोजा घर्ष आंशु पीडाको नाशताहै ॥ ३८ ॥
तिलाम्भसा मृत्कपालं कांस्ये घृष्टं सुधापितम् ॥
निम्बपत्रैघृताभ्यक्तैघर्षशूलाश्रुरागजित् ॥ ३९॥ मट्टीके कमालको तिलोंके पानी से कांसीके पात्रमें घिसे, पीछे घतमें अभ्यक्तकिये नींबके पत्तोंसे धूपितकर यह घर्ष शूल आंशू रागको जीतताहै ॥ ३९॥
सन्धावेनाञ्जिते नेत्रे विगतौषधवेदने ॥
स्तन्येनाश्चोतनं कायं त्रिः परं नांजयेच्च तैः॥४०॥ संधावसे जितहुये और औषध और पीडा रहित नेत्रमें नारीकेदूधसे आश्चोतन करना तीनवार योग्यहै और तीनवारसे जादेनहीं योजितकरै ॥ ४० ॥
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