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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८४९) प्रपौण्डरीकं यष्ट्याह्न दार्वी चाष्टपलं पचेत्॥जलद्रोणे रसे पूते पुनः पक्के घने क्षिपेत् ॥२५॥पुष्पांजनादशपलं कर्षश्च मरिचात्ततः॥ कृतश्चूर्णोऽथवा वर्तिः सर्वाभिष्यन्दसम्भवान् ॥२६॥ हन्ति रागरुजाघर्षान्सद्यो दृष्टिं प्रसादयेत् ॥ अयं पाशुपतो योगो रहस्यं भिषजां परम् ॥ २७॥ श्वतकमल मुलहटी दारुहलदी ये बत्तीस बत्तीस तोले ले १०२४ तोले पानीमें पकावै पीछे रसको कपडे छानि फिर पकावे, जब करडा होजावे तब ॥ २५ ॥ तांबेमें जस्त मिलाके किया पानी चालीस तोले, मिरच १ तोला, इन्होंका किया चूर्ण अथवा करी बत्ती सब प्रकार के अभिष्यंदसे उपजे ॥ २६ ॥ राग पीडा घर्षको नाशतीहै, और तत्काल दृष्टिको साफ करतीहै यह पाशुपतयोग वैद्योंको उत्तम रहस्यहै ॥ २७ ॥
शुष्काक्षिपाके हविषः पानमणोश्च तर्पणम् ॥ घृतेन जीवनीयेन नस्यं तैलेन चाणुना ॥ २८ ॥
परिषेको हितश्चात्र पयः कोष्णं ससैन्धवम् ॥ शुष्काक्षिपाकमें घृतका पाना, और जीवनीयगणमें सिद्धकिये घृतसे नेत्रोंका तर्पण और अणुसं ज्ञक तेल करके नस्य ॥ २८ ॥ और कछुक गकिया और सेंधानमकसे संयुक्तकिया दूधका परिसेक हितहै ॥..
सर्पिर्युक्तं स्तन्यपिष्टमंजनं हि महौषधम् ॥ २९॥
वसा चानूपसत्त्वोत्था किश्चित्सैन्धवनागरा॥ और घृतसे संयुक्तकिया और नारीके दूधमें पिसाहुआ झूठका अंजन हित है ॥ २९ ॥ अनूपदेशके जीवसे उपजी और कछुक सेंधानमक और सूंठसे संयुक्त वसा हितहै ।
घृताक्तान्दर्पणे घृष्टान्केशान्मल्लकसम्पुटे ॥ ३० ॥
दग्ध्वाज्यपिष्टा लोहस्था सा मषी श्रेष्ठमंजनम् ॥ और घृतमें भिगोयेहुये और सीसेपे घिसे बालोंको मलकसंपुटमें ॥ ३० ॥ दग्धकर और घृतसे पिसीहुई और लोहके पात्रमें स्थित श्याही श्रेष्ठ अंजनहै ॥
सशोफे चाल्पशोफे च स्निग्धस्य व्यधयेच्छिराम् ॥३१॥ रेकः स्निग्धैः पुनर्द्राक्षापथ्याकाथत्रिवृद्धृतैः॥
और शोजेसे संयुक्त तथा अल्प शोजेमें स्निग्ध मनुष्यकी नाडीको वेधितकरै ॥ ३१ ॥ पीछे दाख हरडेके काथमें निसोतका घृत मिला जुलाब देवै ॥
श्वेतरोधं घृतभृष्टं चूर्णितं तान्तवस्थितम् ॥ ३२ ॥ उष्णाम्बुना विमृदितं सेकः शूलहरः परम् ॥
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