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(८२०)
अष्टाङ्गहृदयेअजकारोगको पार्श्वभागसे सूईके द्वारा वेधितकर और जलको निकास और अंगुठेकरके समान रूप पीडित कर गीली वसासे परितकरै ॥ ५५ ॥ गायके मांसका चूर्ण करके घावको पूरितकरै
और बांध वांधके खोलतारहै और सात रात्रिमें जब अंकुरित घाव होजावे सम और स्थिर कृष्णभाग होजावे ॥ १६ ॥ तब स्नेहांजन और दूध तथा घृत करके नस्यकर्म करना योग्यहै, ऐसे करनेमें भी फिर अफारा उपजै तो भेद छेदआदि क्रियाको करै परन्तु क्रियाको युक्ति के द्वारा करै जैसे कि अतिच्छेद करके दृष्टीका निमज्जन नहीं होवे तैसे करे ॥ १७ ॥
नित्यं च शुक्रेषु श्रुतं यथास्वं पाने च मर्शे च घृतं विदध्यात। न हीयते लब्धबला तथान्तस्तीक्ष्णाजनैक्सततं प्रयुक्तैः॥५८॥ फूलारोगमें नित्यप्रति यथायोग्य पकेहुये घृतको पीनमें और मर्शसंज्ञक नस्यमें देवै, क्योंकि घृतके पान और सेचन करके लब्धबलवाली दृष्टी भीतरको निरंतर प्रयुक्त तीक्ष्णम्प अंजनोंकरके हानि. को नहीं प्राप्तहोतीहै ।। ५८ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकाया
मुत्तरस्थाने एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
द्वादशोऽध्यायः। अथातो दृष्टिरोगविज्ञानीयमध्यायं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर दृष्टिविज्ञानीय नामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे ।
शिरानुसारिणि मले प्रथमं पटलं श्रिते॥
अव्यक्तमीक्षते रूपं व्यक्तमप्यनिमित्ततः॥१॥ शिराके अनुसारवाला एक कोईसा वात आदि दोष बाह्यरूप प्रथम पटलमें आश्रित होवे तब अव्यक्तरूपको देखता है, और निमित्तके विना प्रगटरूपकोभी देखताहै ॥ १॥
प्राप्ते द्वितीयं पटलमभूतमपि पश्यति॥भूतं तु यत्नादासन्नं दूरे सूक्ष्मं च नेक्षते॥२॥दूरान्तिकस्थं रूपं च विपर्यासेन मन्यते॥ दोषेमण्डलसंस्थाने मण्डलानीव पश्यति॥३॥द्विधैकंदृष्टिमध्यस्थे बहुधा बहुधा स्थिते ॥ दृष्टरभ्यन्तरगते ह्रस्ववृद्धविप
य॑यम्॥४॥नान्तिकस्थमधःसंस्थे दूरगं नोपरि स्थितम्॥पार्श्वे पश्येन पावस्थे तिमिराख्योऽयमामयः॥५॥ दूसरे पटलमें प्राप्तहुये दोषमें नहीं हुये पदार्थकोभी देखताहै और हुये पदार्थको जतनसे देखताहै और समीपके पदार्थको दूर देखताहै और सूक्ष्मपदार्थको नहीं देखताहै ॥२॥ दूर और समीपमें स्थित हुये रूपको विपरीत करके मानताहै और दूसरे मंडलमें स्थितहुये दोषमें मंडलोंकी
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