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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८१९) दृष्टीको नहीं नाशनेवाले शिरायुक्त शुक्र अर्थात् फूलेको नाशनेमें व्रणके फूलेकी तरह चिकित्सा कहीहै ॥
पण्डुयष्टयाह्वकाकोलीसिंहीलोहनिशांजनम् ॥४९॥ कल्कितं छागदुग्धेन सघृतैधूपितं यवैः॥
धात्रीपत्रैश्च पर्यायाद्वतिर्नेत्राञ्जनं परम् ॥ ५० ॥ और श्वेत कमल मुलहटी काकोली कटेहली लोहा हलदीका अंजनहै ॥ ४९ ॥ और बकरीके दूधमें कल्क बना और घृतसे संयुक्तकिये जव और आँवलाके पत्तोंकरके धूपितकर बनाई बत्ती उत्तम नेत्रोंका अंजनहै ॥ ५० ॥
' अशान्तावर्मवच्छस्त्रमजकाख्ये च योजयेत् ॥ नहीं शांति होनेमें अजकाख्यरोगमें अर्मकी तरह शस्त्रको योजितकरै ।।
अजकायामसाध्यायां शुक्रेन्यत्र च तद्विधैः॥ ५१॥ वेदनोपशमं स्नेहपानासृक्त्रावणादिभिः॥
कु-हीभत्सतां जेतुं शुक्रस्योत्सेधसाधनम् ॥ ५२ ॥ और असाध्यहुई अजकामें और फूलेमें और तिसीप्रकारवाले अन्य असाध्य रोगमें ॥ ५१ ।। स्नेहपान रक्तका निकासना आदिकरके पीडाकी शांतिकर, निंदितपनेको जीतनेके अर्थ फूलेके ऊँचे पनेको सावितकर ॥ ५२॥
नालिकेरास्थिभल्लाततालवंशकरीरजम् ॥ भस्माद्भिःस्रावयेत्ताभिर्भावयेत्करभास्थिजम् ॥ ५३॥ वर्ण शुक्रेष्वसाध्येषु तद्वैवर्ण्यन्नमंजनम्॥
साध्येषु साधनायालमिदमेव च शीलितम् ॥ ५४॥ नारियलकी गुठली भिलावाँ ताडफल रालवृक्ष वांशका अंकुर इन्होंके भस्मको पानीमें झिरावै, और तिसमें ऊंटकी हड्डीके चूर्णको भावितकरै ॥ ५३॥ असाध्य फूलोंमें यह अंजन विवर्णताको नाशताहै, और अभ्यस्तकिया यही अंजन असाध्यरोगोंमें साधन करनेको समर्थहै ॥ १४ ॥
अजकां पार्वतो विद्धासूच्या विस्त्राव्य चोदकम् ॥समं प्रपीड्याङ्गुष्ठेन वसाणानुपूरयेत् ॥५५॥ व्रणं गोमांसचूर्णेन बद्धं बद्धं विमुच्य च ॥ सप्तरात्राद्वणे रूढे कृष्णभागे समे स्थिरे ॥५६॥स्नेहांजनं च कर्तव्यं नस्यं च क्षीरसर्पिषा॥ तथापि पुनराध्माने भेदच्छेदादिकां क्रियाम् ॥युक्त्या कुर्याद्यथा नातिच्छेदेन स्यान्निमज्जनम् ॥ ५७ ॥
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