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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७६१) और जुलाबकरके साध्यरोगमें बस्तिकर्मको प्रयुक्त करै और प्रति मर्शद्वारा साध्यरोगमें मर्शको प्रयुक्तकरै ॥ ३३ ॥ और यथायोग्य कहेहुये जुलाव आदिको धायके अर्थ प्रयुक्तकरै ॥
मूर्वाव्योषवराकोलजम्बुत्वग्दारुसर्षपाः॥३४॥
सपाठा मधुना लीटाः स्तन्यदोषहराः परम्॥ मूर्वा सूंठ मिरच पीपल त्रिफला बडबेरीकी छाल जामनकी छाल देवदार सरसों ॥ ३४ ॥ पाठा ये सब शहदके संग चाटेहुये अतिशयकरके दूधके दोषको हरतेहैं ।
दन्तपाली समधुना चूर्णेन प्रतिसारयेत् ॥३५॥ पिप्पल्या धातकीपुष्पधात्रीफलकृतेन वा॥ और पीपलआदि चूर्णको शहदसे संयुक्तकर दंतपालिको प्रतिसादितकरै ॥ ३५ ॥ अथवा धायके फूल और आंवलाके फलोंके चूर्णकरके प्रतिसारितकरै ॥
लावतित्तिरवल्लूररजः पुष्परसप्लुतम् ॥ ३६॥
द्रुतं करोति बालानां दन्तकेसरवन्मुखम् ॥ और लावा तीतरके सूखे मांसके चूर्णको फूलोंके शहदसे संयुक्तकर ॥ ३६ ॥ उपयुक्त किया यह योग बालकोंके दंतरूप केशरवाले मुखको करताहै ( अर्थात् दाँतनिकलआते हैं ॥)
वचाद्विबृहतीपाठाकटुकातिविषाघनैः ॥३७॥
मधुरैश्च वृतं सिद्धं सिद्धं दशनजन्मनि ॥ और वच दोनों कटेहली पाठा कुटकी अतीश नागरमोथा ॥ १७ ॥ मधुरद्रव्य इन्होंकरके सिद्धकिया घृत दांतोंके जमनेमें सिद्धरूपहै ॥
रजनी दारु सरलश्रेयसी बृहतीद्वयम् ॥३८॥ पृश्निपर्णी शताह्वा च लीढं माक्षिकसर्पिषा ॥ ग्रहणीदीपन श्रेष्ठं मारुतस्यानु लोमनम् ॥३१॥अतीसारज्वरश्वासकामलापाण्डुकासनुत्॥ बालस्य सर्वरोगेषु पूजितं बलवर्णदम् ॥ ४०॥
और हलदी देवदार सरलवृक्ष हरडै दोनों कटेहली ॥ ३८ ॥ पृश्निपी सौंफ इन्होंके चूर्णको शहद और घृतमें मिलाके चाटै यह ग्रहणीको दीपन करताहै और श्रेष्ठहै और वायुको अनुलोमित करताहै ॥ ३९ ॥ और अतिसार ज्वर श्वास कामला पांडुरोग खांसी इन्होंको नाशता है और बालकके सब रोगों में पूजितहै बल और वर्णको देतहि ॥ ४० ॥
समाधातकीरोधकुटन्नटवलाह्वयैः ॥ महासहाक्षुद्रसहाक्षुद्र बिल्वशलाटुभिः॥४१॥सकासीफलैस्तोये साधितैः साधि
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