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(७६०)
अष्टाङ्गहृदये.. णा सर्वेषामपि कारणम् ॥२६॥ विशेषाज्ज्वरविड्भेदकासच्छ
दिशिरोरुजाम्॥अतिस्पन्दस्य पोथक्या विसर्पस्य च जायते॥२७॥
अनुबन्धके होनेमें वैद्य रोगके अनुसार चिकित्साको करै, सब रोगोंका आदिकारण दांतोंका उपजनाहै ॥ २६ ॥ इसमें ज्वर विड्भेद खांसी छर्दि शिरका रोग ये होतेहैं और अतिस्पंद पो. थकी विसर्प इन्होंकाभी विशेषकरके आदिकारण भी दातोंकानिकलनाहै ॥ २७॥
पृष्ठभंगे विडालानां वर्हिणां च शिखोदमे ॥
दन्तोद्भवे च बालानां नहि किञ्चिन्न दूयते ॥ २८॥ विलाओंके पृष्ठके भंगमें और मोरोंके चोटीके उपजनेमें और बालकोंके दांतोंके उपजनेमें सब अंग विशेषकरके पीडित होतेहैं ॥ २८ ॥
यथादोषं यथारोगं यथोद्रेकं यथाशयम् ॥
विभज्य देशकालादींस्तत्र योज्यं भिषग्जितम् ॥ २९॥ तहां दोषके अनुसार और रोगके अनुसार और दोषके अधिकताके अनुसार और आशयके अनुसार देश और काल आदिका विभागकरके औषध प्रयुक्तकरना योग्य है ॥ २९ ॥
त एव दोषा दूष्याश्च ज्वराद्या व्याधयश्च यत् ॥अतस्तदेव भैपज्यं मात्रा त्वस्य कनीयसी॥ ३०॥ सौकुमार्याल्पकायत्वासर्वान्नानुपसेवनात् ॥ स्निग्धा एव सदा बाला घृतक्षीरनिषेवणात् ॥ ३१॥ सद्यस्तावमनं तस्मात्याययेन्मतिमान्मृदु । जिससे वेही पूर्वोक्त वात आदि दोषहैं, और वेही पूर्वोक्त दृष्यहैं, और वेही पूर्वोक्त ज्वरआदि व्याधिहैं, इसकारणसे वही पूर्वोक्त औषध प्रयुक्तकरना योग्यहै, परन्तु इस औषधकी छोटी मात्राकरनी चाहिये ॥ ३० ॥ सुकुमारपनेसे और सब प्रकारके अन्नोंके नहीं उपसेवनसे और सबकालमें घृत और दूधको निरंतर सेवनेसे स्निग्धरूप बालकहैं ॥ ३१ ॥ इसवास्ते तिन बालकोंको बुद्धिमान् वैद्य शीघ्रही कोमलरूप वमन औषधका पान करावै ॥
स्तन्यस्य तृप्तं वमयेत्क्षीरक्षीरान्नसेविनम् ॥ ३२॥
पीतवन्तं तनुं पेयामन्नादं घृतसंयुताम् ॥ और दूधको सेवनेवाले तथा दूध और अन्नको सेवनेवाले दूधसे तृप्तहुये बालकको वमन करावै ॥३२॥और अन्नको खानेवाले बालकको पतली और घृतसे संयुक्त पेयाका पान कराके वमन कराव।।
वस्तिसाध्ये विरेकेण मर्शन प्रतिमर्शनम् ॥ युंज्याद्विरेचनादीस्तु धाच्या एव यथोदितान ॥३३॥
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