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(७५४)
अष्टाङ्गहृदये
जरायुमात्रप्रच्छन्ने रविरश्म्यवभासिते ॥धृतस्य निश्चलं सम्यगलक्तकरसाङ्किते॥३२॥ विध्यदैवकृते छिद्रे सकृदेवर्जुलाघवात् ॥ नोवं न पावतो नाधः शिरास्तत्र हि संश्रिताः॥ ॥३३॥ कालिका मर्मरी रक्ता तद्वयधादागरुग्ज्वराः ॥ सशोफदाहसंरम्भमन्यास्तम्भापतानकाः॥३४॥ तेषां यथामयं कु
-द्विभज्याशु चिकित्सितम् ॥ स्थानव्यधान्न रुधिरं न रुग्रागादिसम्भवः ॥३५॥ पीछे छठे सातवें आठवें महीनोंमें रोगसे रहित बालकके शुभदिनमें ।। २९ ॥ और धायकी गोदीमें स्थितहुये बालकको आश्वासितकरताहुआ वैद्य शीतलकालमें कानोंको वाँधै और पुरुषरूप बालकके प्रथम दाहिने कानको वींधै और कन्याके बायें कानको वधि ॥ ३०॥ दाहिने हाथ करके सूईको धारण करताहुआ और बायें हाथसे पालिको धारण करताहुआ वैद्य कर्णपीठके मध्यभागमें कछुक गंडक स्थानके प्रति ॥ ३१ ॥ और जेरमात्र तथा सूर्यके किरणोंसे प्रकाशित आलके रससे अंकित अच्छीतर धारण किये बालकके ।। ३२ ।। दैवकृत छिद्रमें कोमल और हलकेपनेसे एकही बार बँधै और न ऊपरको न पावों में न नीचेको वाँधै क्योंकि तहां नाडियां स्थित होरहीहैं ॥३३॥ कालिका मर्मरी रक्ता इन नामोंवाली नाडियां हैं इन्होंके वेधसे राग शूल ज्वर शोजा दाह संरंभ मन्यास्तंभ अपतानक ये उपजतेहैं ।। ३४ ॥ तिन रोगोंकी यथायोग्य विभागकरी चिकित्साको तत्काल प्रयुक्त करै और यथार्थ स्थानमें वेधसे रुविर नहीं झिरता है और शूल और राग आदिकी उत्पत्ति नहीं होतीहै ॥ ३५ ॥
स्नेहाक्तं सूच्यनुस्यूतं सूत्रं चानु निधापयेत् ॥
आमे तैलेन सिञ्चेच्च बहलां तद्वदारया ॥३६॥ विध्येत्पाली हितभुजः संचाऱ्यांथ स्थवीयसी ॥
वर्तिस्यहात्ततो रूढं वर्द्धयेत शनैः शनैः ॥ ३७॥ पीछे स्नेहसे लेपित और सूईसे अनुस्यूत हुये सूत्रको स्थापित करे और कच्चे तेलसे सेचितकरै घनरूप पालिको पहलेकी तरह आराशस्त्रसे ॥ ३६ ॥ बाँधै हित भोजन करनेवाले मनुष्यके पीछे तीन दिनके उपरांत अत्यंत स्थूलरूप वर्तियोंको संचरितकर अंकुरितछये कानको हौले हौले बढावै३७
अथैनं जातदशनं क्रमेणापनयेत्स्तनात् ॥
पूर्वोक्तं योजयेत्क्षीरमन्नं च लघु वृंहणम् ॥ ३८ ॥ पीछे उपजेहुये दंतोंवाले तिस बालकको क्रमकरके चूंचियोंके पीनेस दूर कवि और पूर्वोक्त बकरी आदिका दूध हलका और बृंहण अन्न इन्होंको प्रयुक्त करै ॥ ३८ ॥
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