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भूमिका।
(५) . एकसमय देवराज इन्द्रने पृथ्वीपर दृष्टिकरके देखा कि आधि व्याधिसे पीडित होकर प्राणी दारुणकष्ट भोगरहे हैं; यह देखकर बडी दया हुई और धन्वन्तरिजीको बुलाकर कहा, हे सुरश्रेष्ठ ! मैं आपसे कुछ कहनेकी इच्छाकरताहूं, आप उसविषयमें समर्थ हैं, जीवोंका उपकार करनेके अर्थ आपको व्रती होना पडेगा । देखिये पूर्व कालमें उपकारार्थ किसने क्या नहीं किया है; त्रिलोकीनाथ विष्णु जीने जगतके हितार्थ मत्स्यादि अनेक साधारण रूप धारण कियेथे । अतएव भाप पृथ्वीपर अवतारले काशीराज हो रोग दूर करनेके लिये आयुर्वेदको प्रकाश कीजिये। __ प्राणियोंका हितचाहनेवाले सुरशार्दूल इन्द्रने यह कहकर धन्वन्तरिको समस्त आयुर्वेद सिखाया । इसप्रकार धन्वन्तरिजी इन्द्रसे आयुर्वेद पढकर बनारसके मध्य क्षत्रियवंशमें जन्मग्रहणकर दिवोदास नामक विख्यात राजा हुये राजा दिवोदास बाल्यावस्थासेही संसारसे मुंहमोड घोर कठोर तप करने लगे, ब्रह्माजीने तपसे प्रसन्नहो उन्हें काशीका राजा किया । तबसे वह काशिराजनामसेभी विख्यात हुए । इन्हीं महाराजने प्राणियोंके हितार्थ एक संहिता बनाकर अपने शिष्यों को पढाई। __ जिस समय समस्त रोग उत्पन्न होकर प्राणियोंके तप, वेदाध्ययन, ब्रह्मचर्यादि धर्मानुष्ठानके
और आयुके विघ्न हो उठे, तिसकालमें महर्षि गण अत्यन्त दयापरवश होकर इनके प्रतिविधानका उपाय करनेके लिये हिमालयपर्वतकी तराईमें एकटे हुए । भरद्वाज, अंगिरा, मरीचि, भृगु, भार्गव, पुलस्त्य, अगस्ति, असित, वसिष्ठ, पराशर, हारीत, गौतम, सांख्य, मैत्रेय, च्यवन, जमदग्नि, गर्ग, कश्यप, काश्यप, नारद, वामदेव, मार्कण्डेय, कपिञ्जल, शाण्डिल्य, कौण्डिन्य, शाकुनेय, शौनक, आश्वलायन, सांकृत्य, विश्वामित्र, परीक्षक, देवल, गालव, धौम्य, काम्य, कात्यायन, काङ्कायन, बैजवाप, कुशिक, बादरायण, हिरण्याक्ष, लौगाक्षि, शरलोमा, गोभिल, वैखानस और वालखिल्यादि संयमनियमपरायण, ब्रह्मज्ञानपरिपूर्ण, तपकान्तियुक्त, होमकी अग्निके समान तेजस्वी ऋषिलोग सुखसे सभामें बैठकर यह पवित्र जगहितकारी प्रस्तावकरतेहुए कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इनचारोंके प्राप्त होनेका प्रधान उपाय आरोग्य है, परन्तु रोग उत्पन्न होकर आरोग्य व कुशलको जीवनके सहित अकालमें नाश कर देते हैं, बस मनुष्यों के कल्याणमें इनका महाविघ्न होरहाहै, अतएव तिस उपायसे इन रोगोंको दूरकरना चाहिये ।
इसप्रकार प्रस्ताव करनेके उपरान्त ऋषिगणोंने ध्यानधरकर ज्ञाननेत्रोंसे देखा कि सुरराज इन्द्रही इन रोगोंके रोकनेका उपाय कर सकते हैं । इस समय किसको उनके पास भेजाजाय । यह प्रसंग चलतेही परम कारुणिक महार्ष भरद्वाजजीने कहा कि मैं वहां जाना अंगीकार करताहूं । तदनन्तर महर्षियोंकी आज्ञा पाय महामुनि भरद्वाजजी इन्द्रभवनको गए। उन्होंने तहां पहुंचकर देखा कि सुरराज इन्द्र महर्षियोंके साथ बैठेहुए प्रदीप्त अग्निकी समान विराजमान होरहे हैं, महर्षि भरद्वाजको देखतेही इन्द्रजी शीघ्रतापूर्वक उठे, और आदरमानके साथ बैठाल कर कुशलप्रश्न किया, इन्द्रने आगमनका कारण पूछा, तब महर्षिजी बोले, हे सुरराज ! पृथ्वीमें अनेक रोग उत्पन्न होकर तप व पूजा आदि धर्मकार्योंमें विघ्न करते हैं जीवगण अकालहीमें कालकवलित होते हैं, इसी कारण
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