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अष्टाङ्गहृदयसंहिताकीएक समय मुनिश्रेष्ठ आत्रेयजी समस्त संसारको रोगी निहारकर चिन्ता करने लगे कि "क्या करें, कहां जांय ? किस प्रकारसे संसार रोगहीन होगा ?. संसारी जीवोंको दुःख देखकर हमारा चित्त महान्याकुल होताहै । " परम कारुणिक भगवान् आत्रेय कातरहृदय हो बहुत देरतक यह सोच विचार करते २ सरलतासे प्राणियोंको स्वास्थ्य दान करनेके अर्थ इन्द्रालयमें आयुर्वेद पढ़नेको गए।
अमरावतीमें गमन करके देखा कि सूर्यकी समान देवर्षियों करके स्तुति कियेजातेहुए, त्रिदशशिरोमणि, आयुर्वेदमहाचार्य इन्द्रजी, सिंहासनपर बैठे हुए अपने देहकी प्रभासे न्दशों दिशाओंको प्रकाशमान कररहे हैं। तपसे दुर्बल हुए भगवान् आत्रेयको देखकर इन्द्रजी शीघ्रतासे सिंहासनको छोडकर उठे और भली भांतिसे कुशल प्रश्नकर आगमनका कारण पूछा । ऋषियोंमें श्रेष्ठ आत्रेयजी देवराजसे इस प्रकार पूछेजानेपर अपने आगमनका कारण इस प्रकार कहने लगे, " हे देव राज ! आप केवल स्वर्गकेही राजा नहीं, बरन् ब्रह्माजीने आपको त्रिभुवनका राज्य दियाहै। आजकल आपके राज्यान्तर्गत पृथ्वीराज्यकी बडी दुर्दशा होरही है, तहांके जीव व्याधिपीडित, और शोकसे व्याकुल होकर अत्यन्त दुःखित हो रहे हैं । हे देव ! कृपा करके उनके दारुण संतापको नाश कीजिये । मैं उनके दुःखसे दुःखी होकर आयुर्वेद पढ़नेको यहां आयाहूं, आप अनुग्रह करके मेरी प्रार्थनांको पूर्ण करें ।' इन्द्रने सम्मत होकर उनको समस्त आयुर्वेद पढ़ाया.
मुनियोंमें श्रेष्ठ आत्रेय इन्द्रसे आयुर्वेद पढने के पश्चात् उनको आशीर्वाद देकर पृथ्वीपर आये। अनन्तर अग्निवेश, भेड, जातूकर्ण्य, पराशर, क्षारपाणि और हारीतने,-करुणाकर भगवान् आत्रे. यसे तिनकी बनाई संहिताको भली भांति पढ़ा । इन ऋषियोंमें पहले अग्निवेश, और तदुपरान्त भेडादि ऋषियोंने, आयुर्वेदका एक २ तंत्र बनाकर-मुनियोंमें बन्दना करनेके योग्य अपने गर आत्रेयजीको सुनाया। वह सुनकर वे अत्यन्त सन्तुष्ट हुए, तदुपरान्त दूसरे देवर्षि और देवतालोगोंनेभी इन तंत्रोंको सुनकर असंख्य धन्यवाद दिये ।
महामुनि भरद्वाजजी चित्त लगाय.समस्त आयुर्वेदशास्त्रको पढकर पृथ्वीमें आये तिनसे और ऋषियोंने आयुर्वेदको सीखकर दीर्घायु वा आसेग्यको प्राप्तकिया ।
जिसमय विष्णुजीने मत्स्यावतारेलकर वेदका उद्धार किया, तिसकाल अनन्तदेवने वहांपर साङ्ग वेद शास्त्र और समस्त आयुर्वेद शास्त्रको प्राप्तकिया। एक समय अनन्तजी पृथ्वीका भेद लेनके. लिये भूमण्डलपर आये व देखा कि मनुष्यगण अनेक प्रकारके रोगोंसे पीडित होकर क्लेश पाते
और अकालमें कालके गालमें दबाए जाते हैं । तिनकी दुर्दशा निहार करुणापरवश हो अनन्त देव रोगोंको दूररकनेके अर्थ पृथ्वीपर अवतार लेते हुए । वह चरकी समान पृथ्वीपर अवतरेथे और उनको किसीने नहीं जाना, इसीलिये वह चरकनामसे प्रसिद्ध हुए । समस्तरोगोंके नाश करनेवाले, विष्णुके अंशसे उत्पन्नहुए चरकाचार्य सुरपूजित बृहस्पतिजीकी समान संसारके पूजनीय हुए । आत्रेयऋषिके चेले अग्निवेशादि ऋषियोंने जो तंत्र बनाये थे, उन समस्त तंत्रोंका संग्रह और संस्कार करके महाबुद्धिमान् चरकाचार्यने अपने नामसे ( चरक ) नामक ग्रंथ बनाया।
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