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(७२८)
अष्टाङ्गहृदये
और अतियोगसे जो औषध जीवसंज्ञक रक्तको हरता है ॥ ३२ ॥ वह जीवादान कहाता है; जिसकारणसे वह जीवको ग्रहण करता है, तिस विरेचनके अतियोग से उपजे हुये रक्त के संग मिले हुये अन्नको कुत्ताके अर्थ अथवा काकके अर्थ देवै ॥ ३३ ॥ तिसके भोजन करनेमें जीवको कह और नहीं भोजन करनेमें पित्तको कहै, तिस रक्तकरके भावित किया सफेद वस्त्र सूखजाने अल्प गरम किये पानीकरके || ३४ ॥ प्रक्षालित किया वस्त्र वर्णसे रहित रहता है और पित्तरूपरक्तसे रंगा हुआ वस्त्र शुद्ध होजाता है |
तृष्णामूर्च्छामदार्त्तस्यकुर्य्यादामरणंक्रियाम्॥३५॥ रक्तपित्ताति सारनी तस्याशु प्राणरक्षणीम् ॥ मृगगोमहिषाजानां सद्यस्कं जीवताम ॥ ३६ ॥ पिबेजीवाभिसन्धानं जीवं तद्धयाशुयच्छति ॥ तदेव दर्भमृदितं रक्तं वस्तौ निषेचयेत् ॥ ३७ ॥
और तृषा मूर्च्छा मदसे पीडित मनुष्य के मरनेतक क्रियाको करै ॥ ३५ ॥ परंतु रक्तपित्त अतिसारको नाशनेवाली और प्राणोंको रक्षा करनेवाली तिस क्रियाको शीघ्र करे और मृग गाय भैंसा बकरा जीव के तत्काल निकासे हुये रक्तको ॥ ३६ ॥ पीवै, यह रक्त जीवाभिसंधान रूप है, यह रक्त तत्काल जीवको देता है और यही दर्भसे मर्दितकिया रक्त बस्तिमें सेचित करना योग्य है ॥ ३७ ॥
श्यामाकाश्मर्य्यमधुकदूर्वोशीरैः शृतं पयः ॥
घृतमण्डजनयुतं वस्ति वा योजयेद्धिसम् ॥ ३८ ॥ पिच्छावस्ति सुशीतं वा घृतमण्डानुवासनम् ॥
कालीनिशोत कंभारी मुलहटी दूब खश इन्होंकरके पकाया दूध अथवा घृत मंडरसोत इन्होंसे युक्तकी और शीतल वस्ती प्रयुक्त करनी योग्य है ॥ ३८ ॥ अथवा शीतलकरी पिच्छावस्ति अथवा घृतको मंडकरके संयुक्त किया अनुवासन बस्ति देना योग्य है ॥
गुदं भ्रष्टं कषायेश्व स्तम्भयित्वा प्रवेशयेत् ॥ ३९ ॥
और स्थान से भ्रष्टहुई गुदाको कषायरसमें निष्पादित किये काथोंकरके स्तंभितकर प्रवेशकरै ॥ ३९ ॥
विसंज्ञं श्रावयेत्सामवेणुगीतादिनिःस्वनम् ॥ ४० ॥
और संज्ञासे रहित मनुष्यको सामवेद तथा वंशीगीत आदिके शब्दको श्रवण करावै ॥ ४० ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिता भाषाटीकायांकल्पस्थाने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
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