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कल्पस्थानं भाषाटीकासमेतम् । '
(७२७) मधुर औषधोंकरके शेषरहे विरेचन औषधको निकासै और अत्यंत वमनके होनेमें जुलाबको प्रयुक्त करै और अत्यंत जुलाबको लगनेमें कोमल वमनको प्रयुक्त करै ॥ २५ ॥ शीतलरूप परिषेक और स्नानआदिकरके तिस जुलाबको थांभै ॥
अञ्जनं चन्दनोशीरमज्जासृक्छर्करोदकम् ॥२६॥
लाजचूर्णैः पिबेन्मन्थमतियोगहरं परम् ॥ रसोत चंदन खशकी मज्जा मँजीठ खाँडका सरबत ॥ २६ ॥ इस मंथको धानकी खीलोंके चूर्णके संग पावै, यह अत्यंत जुलाबको बंधकरता है ॥
वमनस्यातियोगे तु शीताम्बुपरिषेचितः॥ २७॥ पिबेत्फलरसैर्मन्थं सघृतक्षौद्रशर्करम् ॥ सोगारायां भृशं छा मूर्वायां धान्यमुस्तयोः ॥२८॥ समधूकांजनं चूर्ण लेहयेन्मधुसंयुतम् ॥
और वमनके अत्यंत योगमें शीतलपानीकरके परिषेचित किया मनुष्य ॥ २७ ॥ त्रिफलाके रसेंकरके किया और घृत शहद खांडसे संयुक्त मंथको पावै और अत्यंत उद्गारसे संयुक्त वमनमें मूर्वा धनियां नागरमोथा ॥ २८ ॥ मुलहटी रसोतके चूर्णको शहदसे संयुक्तकर चाटै ॥ ..
वमनेऽन्तः प्रविष्टायां जिह्वायां कवलग्रहाः॥२९॥ स्निग्धाम्ल लवणा हृद्या यूषमांसरसा हिताः ॥ फलान्यम्लानि खादेयुस्तस्यचान्येऽग्रतो नराः ॥३०॥ निःसृतान्तु तिलद्राक्षाकल्कलितां प्रवेशयेत् ॥
और वमनकरके भीतरको प्रवेशहुई जीभमें ॥ २९ ॥ स्निग्ध अम्ल लवण हृदयमें हित यूष और मांसके रसका ग्रास हित है, और तिसके सन्मुख अन्य मनुष्य खट्टे फलोंको खावै ॥ ३० ॥ और निकसीहुई जीभको तिल और दाखोंके कल्कसे लेपितकर भीतरको प्रविष्ट करे ॥
वाग्ग्रहानिलरोगेषु घृतमांसोपसाधिताम् ॥ ३१॥
यवागूं तनुकां दद्यात्स्नेहस्वेदौ च कालवित् ॥ वाणीके बंध और वात रोगोंमें घृत और मांसकरके उपसाधित करी ॥ ३१ ॥ और स्वच्छ यवागूको देवै और कालको जाननेवाला वैद्य स्नेह और स्वेदको प्रयुक्त करै ॥
अतियोगाच्च भैषज्यं जीवं हरति शोणितम् ॥३२॥ तज्जीवादा नमित्युक्तमादत्ते जीवितं यतः॥शुने काकाय वा दद्यात्तेनान्नम सृजा सह ॥३३॥ भुक्ते तस्मिन्वदेज्जीवमभुक्ते पित्तमादिशेत्॥ शुक्लं वा भावितं वस्त्रमावानं कोष्णवारिणा ॥३४॥ प्रक्षालितं विवर्णं स्यात्पित्ते शुद्धं तु शोणिते ॥
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