________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कल्पस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७२५) तं तेललवणाभ्यक्तंस्विनंप्रस्तरशंकरैः॥९॥निरूढं जाङ्गलरसै - जयित्वाऽनुवासयेत् ॥ फलमागधिकादारुसिद्धतैलेन मात्रया ॥१०॥स्निग्धं वातहरैः नेहैः पुनस्तीक्ष्णेन शोधयेत् ॥ बहुदोषस्य रूक्षस्य मन्दाग्नेरल्पमौषधम् ॥११॥ सोदावर्त्तस्य चोक श्य दोषान्मार्ग निरुध्य तैः॥ भृशमाध्मापयेन्नाभिं पृष्टपार्श्व शिरोरुजम् ॥१२॥श्वासं विण्मूत्रवातानां सङ्गं कुर्य्याच्च दारुणम् ॥ अभ्यङ्गस्वेदवादिसनिरूहानुवासनम् ॥ १३ ॥ उ. दावर्त्तहरं सर्वं कामातस्य शस्यते ॥ तिस उक्लिष्टदोषवाले मनुष्यको तेल और नमकसे अभ्यक्तकर और प्रस्तरसंज्ञक नामवाले स्वेदोंकरके स्वेदितकर ।। ९ ॥ और निरूहबस्तिसे संयुक्तकर और जांगल देशके मांसोंके रसोंकरके भोजन कराय पीछे त्रिफला पीपल देवदारमें सिद्ध किये तेलकरके मात्राके अनुसार अनुवासित करावै ॥ १० ॥ पीछे वातको नाशनेवाले स्नहोंकरके स्निग्धकिये तिस मनुष्यको फिर तीक्ष्ण जुलाब करके शोधित करै और बहुतदोपोंवालोंके और रुक्षके और मदाग्निवालके प्रयुक्त किया विरेचनसंज्ञकअल्प औषध ॥ ११ ॥ उदावर्तवालेके दोषोंको उक्लेशितकर और मार्गको रोक तिन दोषोंकरके अतिशयसे नाभिपै अफाराको प्राप्त करताहै और पृष्ठ पशली शिर इन्होंमें शूल ॥ १२॥ श्वास विष्ठा मूत्र इन्होंके अत्यन्त बंधको करता है तहाँ अभ्यंग पसीना बत्ती आदि कर्म निरूह अनुवासन ॥ १३ ॥ उदावर्तको हरनेवाला सब कर्म तिस अफारेवालेको श्रेष्ठ है ।।
पञ्चमूलयवक्षारवचाभूतिक्तसैन्धवैः॥ १४ ॥
यवागूः सुकृता शलविबन्धानाहनाशनी ॥ और पंचमूल जवाखार वच कायफल सेंधानमक ॥ १४ ॥ इन्होंकरके बनाई यवागू शूल विबंध अफारेको नाशतीहै ||
पिप्पलीदाडिमक्षारहिंगुशुण्ठ्यम्लवेतसान् ॥ १५॥ ससैन्धवान्पिबेन्मयैः सर्पिषोष्णोदकेन वा॥
प्रवाहिकापरिस्रावे वेदनापरिकर्त्तने ॥ १६ ॥ और पीपल अनार जवाखार हींग सूट अम्लयतस ॥ १५॥ इन्होंको सेंधानमकसे संयुक्तकर मदिराके संग अथवा घृतके संग अथवा गरम पानीके संग प्रवाहिका परित्राव शूल परिकर्त रोगोंमें पावै ॥ १६ ॥
पीतौषधस्य वेगानां निग्रहान्मारुतादयः॥ कुपिता हृदयं गत्वा घोरं कुर्वन्ति हृदयहम्॥१७॥ हिध्मापावरुजाकासदैन्य
For Private and Personal Use Only