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(७२४)
अष्टाङ्गहृदयेकोमलकोष्ठवाले और क्षुधावाले और अल्प कफवाले अथवा अजीर्णमें दुर्बल मनुष्यको अतितक्षिण, शतिल अल्पवमन औषध ॥ १ ॥ पान किया नीचेको गमन करता है, तब वमनकार्यकी हानि और मलका उदय होताहै. तिस मनुष्यको स्निग्ध करके पहिले अतिक्रमको स्मरण करताहुआ वैद्य फिर वमन करावै ॥२॥
अजीणिनः श्लेष्मवतो ब्रजत्यूवं विरेचनम् ॥
अतितीक्ष्णोष्णलवणमहृद्यमतिभूरि वा ॥३॥ अजीर्णवालेके और बहुतसे कफवालेके अतितीक्ष्ण गरम नमक और हृदयमें अप्रिय अत्यंच ज्यादे मात्रासे संयुक्त विरेचन अर्थात् जुलाब लेनका द्रव्य ऊपरको गमन करता है ॥ ३ ॥
तत्र पूर्वोदिता व्यापत्सिद्धिश्च न तथापि चेत् ॥ ४॥ आशयेतिष्ठति ततस्तृतीयं नावचारयेत् ॥
अन्यत्र सात्म्यादृयाद्वा भेषजान्निरपायतः॥ ५॥ तहां तिस रोगीको फिर स्निग्धकर पूर्वोक्त अतिक्रमणको स्मरण करताहुआ वैद्य फिर विरेचनसं. ज्ञक औषधका पान करावै ॥ ४ ॥ जो दूसरेबार पानकिया औषध आशयमें नहीं स्थित होवे अर्थात् ऊपरको ही गमनकरै तब पश्चात् तीसरेवार विरेचन संज्ञक औषधको नहीं पान करावे, परन्तु जो कदाचित प्रकृतिके योग्य और हृदयमें प्रिय और उपायसे वर्जित औषध होवे तो तीसरे वारभी पानकरावै ॥ ५ ॥
अस्निग्धस्विन्नदेहस्य पुराणं रूक्षमौषधम् ॥ दोषानुक्लेश्य निर्हर्तुमशक्तं जनयेगदान् ॥६॥ विभ्रंशं श्वयधुं हिध्मं तमसो दर्शनं तृषम् ॥ पिण्डिकोद्वेष्टनं कण्डूमर्वोः सादं विवर्णताम् ॥७॥ स्निग्धस्विन्नस्य वात्यल्पं दीप्ताग्नेर्जीर्णमौषधम् ॥ शीतैर्वा स्तब्धमामे वा समुत्क्लेश्य हरेन्मलान् ॥ ८॥
तानेव जनयेद्रोगानयोगः सर्व एव सः॥ स्नेह और स्वेदसे वर्जित देहवाले मनुष्यके अर्थ उपयुक्तकिया पुराना और रखा औषध दोपों को उक्लशितकरके और दोषोंको निकासनेको नहीं समर्थ हुआ रोगोंको उपजात्वा है ॥ ६ ॥ विभ्रंश शोजा हिचकी अंधेरीका देखना तृपा पिंडियोंका उद्वेष्टन और दोनों जांघोंमें खाज शिथिलता विवर्णताको करता है ॥ ७ ॥ अथवा स्नेह और स्वेदसे संयुक्त और दप्तिअग्निवाले मनुष्यको उपयुक्त किया अल्प अर्थात् मात्रासे हीन विरेचनऔषध शीतल पदार्थों के संग स्तब्धरूप औषय आममें स्थित यह दोषोंको उक्लेशित करके निकासताहै ॥ ८ ॥ और तिन विधशआदि पूर्वोक्त रागोंको उपजाताहै यह सब अयोग्य है ॥
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