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( ६७४ )
अष्टाङ्गहृदये
एतत्पलं जर्जरितं विपक्कं जले पिबेद्वयोषविशोधनाय ॥ जीर्णे रसैर्धन्वमृगद्विजानां पुराणशाल्योदनमाददीत ॥ २९ ॥ कुष्ठं किलासं ग्रहणीप्रदोषमर्शांसि कृच्छ्राणि हलीमकञ्च ॥ षड्रात्रियोगेन निहन्ति चैतगृहस्तिशूलं विषमज्वरञ्च ॥ ३० ॥ परवलकी जड हरडै बहेडा आमला ये सब पृथक् पृथक् आठ आठ मासे लेने और सूंठ ३ मासे त्रायमाण ४ मासे और कुटकी ४ मासे इन्होंकरके पल होता है ॥ २८ ॥ जर्जरितहुए और जलमें विपक्क इस पलप्रमाण औषधको दोषोंके शुद्धिके अर्थ पीव, और जीर्ण होनेपे जांगलदेशके मृग और पक्षियोंके मांसों के रसोंके संग पुराने शालिचावलोंको खावै ॥ २९ ॥ यह योग कुष्ठ किलाश ग्रहणीदोष कष्टसाध्य बवासीर हलीमक हृच्छूल बस्तिशूल विषमज्वरको ६ रात्री के योगकरके नाशता है ॥ ३० ॥
विडङ्गसारामलकाभयानां पलत्रयं त्रीणि पलानि कुम्भात् ॥ गुडस्य च द्वादशमासमेष जितात्मना हन्त्युपयुज्यमानः ॥३१॥ कुष्ठं श्वित्रं श्वासकासोदराशमे हप्लीहग्रन्थिरुग्जन्तु गुल्मान् ॥ सिद्धं योगं ब्राह यक्षो मुमुक्षोर्भिक्षोः प्राणान्माणिभद्रः किलेमम् ॥ ३२ ॥
विडंगसार आमला हरडे ये १२ तोले और श्वेत निशोत १२ तोले और गुड ४५ तोले १ महीनातक प्रयुक्त किया योग जितेंद्रियों के वक्ष्यमाण रोगोंको नाशता है ॥ ३१ ॥ कुष्ठ श्वित्र श्वास खांसी उदररोग बवासीर प्रमेह तिल्लिरोग ग्रंथिरोग कृमिरोग गुल्म इन्होंको नाशता है मणिभद्रनामवाले यक्षने प्राणोंको छोडनेवाले भिक्षुके अर्थ इस सिद्धयोगको कहा है ॥ ३२ ॥
भूनिम्बनिम्बत्रिफलापद्मकातिविषाकणाः ॥ मूर्वापटोलीद्विनि शापाठाति केन्द्रवारुणीः ॥३३॥ सकलिङ्गवचास्तुल्या द्विगुणा श्च यथोत्तरम् ॥ लिह्यादन्तीत्रिवृद्वाह्मीश्चूर्णिता मधुसर्पिषा ॥ ॥ ३४ ॥ कुष्ठमेहप्रसुप्तीनां परमं स्यात्तदौषधम् ॥
चिरायता नींव त्रिफला पद्माख अतीश पीपल मूर्वा परवल हलदी दारुहलदी पाठा कुटकी इन्द्रायण ॥ ३३ ॥ इन्द्रयव वच ये सब समान भाग लेबे और जमालगोटाकी जड निशोथ ब्राह्मी ये सब उत्तरोत्तर क्रमसे दुगुनी लेवै पीछे इन्होंके चूर्णको शहद और घृतके संग चाटै ॥ ३४ ॥ कुष्ठ प्रमेह सुनहरी इन्हों को यह परम औषध है ॥
वराविडङ्गकृष्णा वा लिह्यात्तैलाज्यमाक्षिकैः ॥ ३५ ॥
अथवा त्रिफला वायविडंग पीपल इन्होंके चूर्णको तेल घृत शहद के संग चाटै ॥ ३५ ॥
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