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(६४२)
अष्टाङ्गहृदयेवृश्चिकालीवचाशुण्ठीपञ्चमूलपुनर्नवात् ॥
वर्षाभूधान्यकुष्टाञ्च काथैमूत्रैश्च सेचयेत् ॥ ४९ ॥ मेढासींगी वच सूंठ पंचमूल नखी शांठि धनियां कूट इन्हों के क्वाथोंकरके और मूत्रोंकरके सेचित करै ॥ ४९॥
विरिक्तं म्लानमुदरं स्वेदितं साल्यलादिभिः॥
वाससा वेष्टयेदेवं वायुर्नाऽऽध्मापयेत्पुनः॥५०॥ विरिक्त और मर्दित और शाल्वलआदि स्वेदोंकरके स्वेदित पेटको वस्त्रकरके वेष्टित करै कि जैसे वायु अफार. ... नहीं उपजावे ॥ ५० ॥
सुविरिक्तस्य यस्य स्थादाध्मानं पुनरव तम्।
सुस्निग्धैरम्ललवणैर्निरूहैः समुपाचरेत् ॥ ५१॥ । अच्छी तरह विरिक्त हुये तिस मनुष्यके फिर अफारा उपजै तब तिस मनुष्यको सुंदर स्निग्ध और अम्ल तथा लवणसे संयुक्त निरूहोंकरके उपाचरित करै ॥ ११ ॥ सोपस्तंभोऽपि वै वायुराधमापयति यं नरम्।।तीक्ष्णाः सक्षारगोमूत्राः शस्यन्ते तस्य बस्तयः ॥५२॥ इति सामान्यतः प्रोक्ताः । सिद्धा जठरिणां क्रियाः ॥
उपस्तंभसे संयुक्त हुआ वायु जिस मनुष्यको आध्मापित करै तिसको खार और गोमूत्रसे संयुक्त करी तक्षिण बस्ती हित है ।। ५२ ॥ ऐसे सामान्यसे उदररोगियोंकी सिद्धरूप क्रिया कही ॥
वातोदरेथ बलिनं विदार्यादिशृतं घृतम् ॥५३॥ पाययेत्तुततः स्निग्धं स्वेदिता) विरेचयेत् ॥ बहुशस्तैल्वकेनैनं सर्पिष मिश्रकेण वा ॥ ५४ ॥ कृते संसर्जने क्षीरं बलार्थमवचारयेत् प्रागुत्केशान्निवर्तेत बले लब्धे क्रमात्पयः॥५५॥
और बायुसे उपजे उदररोगमें बलवान्को विदार्यादि गणके औषधोंकरके पकाये हुये घृतको ॥ ५३॥ पान करावे, पीछे स्निग्ध और स्वेदित किये मनुष्यको तैल्वक घृतकरके अथवा मिश्रक घृतकरके जुलाब देवै ॥ ५४ ॥ ऐसे संसर्जन करनेके पश्चात् बलके अर्थ दूधको देवै और प्रायता करके पूर्वोक्त उक्लेशोंको देखकर और जब बलकी लब्धी होजावे तब क्रमसे दूधको निवृत्त करै।।१५।।
यूषै रसैर्वा मन्दाम्ललावगैरिन्धतानलम् ॥ सोदावर्त पुनः स्निग्धं स्विन्नमास्थापयेत्ततः॥५६॥ तीक्ष्णाधोभागयुक्तेन दाश मूलिकबस्तिना॥
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