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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (६२७) और मुरगे मोर तीतर कुंज वतक इन्होंके मांस ॥ ५८॥ शालिचावल मदिरा घत ये सब चातगुल्ममें चिकित्सारूप हैं और प्रमाणित द्रव स्निग्ध भोजन वातगुल्मवालोंको हितहै ॥ ५९॥ मंडसहित वारुणी मदिरा अथवा गरम किया अन्नोंका जल इन्होंका पान हितहै । स्निग्धोष्णे नोदिते गुल्मे पैत्तिके स्त्रंसनं हितम् ॥६०॥ द्राक्षाभयागुडरसं कम्पिल्लं वा मधुद्रुतम् ॥ कल्पोक्तं रक्तपित्तोक्तं गुल्मे रूक्षोष्णजे पुनः ॥ ६१ ॥ परं संशमनं सर्पिस्तिक्तं वासाघृतं शृतम् ॥ तृणाख्यपञ्चकक्वाथे जीवनीयगणेन वा ॥६२॥ शृतं तेनैव वा क्षीरं न्यग्रोधादिगणेन वा ॥ तत्रापि स्रेसनं युज्याच्छीघमात्ययिके भिषक ॥६३॥ वैरेचनिकसि
द्धेन सर्पिषा पयसाऽपि वा ॥
और स्निग्ध तथा गरम पदार्थ पित्तके गुल्ममें नहीं देना उस पैतिक गुल्ममें जुलाब हितहै । ६० ॥ दाख हरडै गुडका रस इन्होंकरके अथवा शहदसे संयुक्त कवीला औषध करके अथवा रक्तपित्तमें कहे निशोत कपिला इत्यादि कल्प करके स्रेसन अर्थात् जुलाबका लेना हितहै रूक्ष और गरमपदार्थसे उपजे पित्तके गुल्ममें ॥ ६१ ।। कुष्ठचिकित्सितमें कहा तिक्तघृत तथा वांसाघृत श्रेष्टरूप शमनहै और तृणपंचकके काथमें पकाया घृत अथवा जीवनीयगणोंके औषधोंकरके पकाया घृत ॥ ६२ ॥ अथवा जीवनीयगणकरके तथा न्यग्रोधादिगणोंके औषधोंकरके पकाया दूध ये सब हितहैं और सामान्यसे उपजे हुये असाध्यरूप गुल्ममेंभी वैद्य जुलाबको प्रयुक्त करै ॥ ६३ ॥ विरेचनविहित द्रव्योंकरके सिद्धहुये वृत करके अथवा दूधकरके जुलाबको प्रयुक्त करै ।।
रसेनामलकेक्षणां घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥६४॥ पथ्यापादं पिबेत्सर्पिस्तत्सिद्धं पित्तगुल्मनुत् ॥ पिबेद्वा तैल्वकं सर्पिर्यच्चोक्तं पित्तविद्रधौ ॥६५॥
और आमला तथा ईखके २१६ तोले रस करके ६४ तोले घृतको पकावै ॥ ६४ ॥ और चौथाई भाग हरडैका कल्क मिलावै सिद्ध कियेहुये इस घृतको पावै यह पित्तके गुल्मको नाशताहै और पित्तकी विद्रधीमें कहेहुये तैल्वक घृतको पावै ॥ ६५ ॥
द्राक्षां पयस्यां मधुकं चन्दनं पद्मकं मधु ॥
पिवेत्तण्डुलतोयेन पित्तगुल्मापशान्तये ॥ ६६ ॥ दाख दूधी मुलहटी लालचंदन शहद पनाख इन्होंको चावलोंके पानी के संग पावै पित्तके गुल्मकी शांतिके अर्थ ॥ ६६ ॥
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