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(६१२)
अष्टाङ्गहृदये
नहीं पकी हुईं शराविकाआदि फुनसियों को शोजाकी तरह उपाचारित करे और पकी हुई फुनसियोंको घावकी तरह उपाचारत करें और तिन फुनसियोंको पूर्वरूप में ॥ ३९ ॥ दूधवाले वृक्षोंका पानी और बकरेके मूत्र और तीक्ष्णशोधन श्रेष्ठ है क्योंकि विशेषकर के प्रमेहरोगी दुर्विरेच्य होते हैं ॥ ४० ॥ तैलमेलादिना कुर्य्याद्गणेन व्रणरोपणम् ॥ उद्वर्त्तने कषायं तु वर्गेणारग्वधादिना ॥४१ || परिषेकोऽसनाद्येन पानान्ने वत्सका दिना ॥
लादिगण औषधों करके किया तेल व्रणको रोपता है और उद्वर्तन करनेमें आरग्ववादि कषाय श्रेष्ठ ॥ ४१ ॥ और परिसेकमें आसनादि गणोंका काथ श्रेष्ठहै और वत्सकादि काथ करके संस्कृत किये पान और अन्न श्रेष्ठ हैं |
पाठाचित्रकशार्ङ्गष्टा सारिवा कण्टकारिका ॥४२॥ सप्ताहं कौटजं मूलं सोमवल्कं नृपद्रुमम् ॥ संचूर्ण्य मधुना लिह्यात्तद्रचचूर्ण नवायसम् ॥ ४३ ॥
- और पाठा चीता करंजवली शारिवा कटेहली ॥ ४२ ॥ शातला कुडाकी जड श्वेतखैर अमल तासका चूर्णकर शहद के संग चाटै, अथवा नवायस चूर्ण को शहदके संग चाटै ॥ ४३॥ मधुमेहित्वमापन्नो भिषग्भिः परिवर्जितः ॥ शिलाजतुतुलामद्यात्प्रमेहार्त्तः पुनर्नवः ॥ ४४ ॥
वैद्योंकरके वर्जित और मधुमेहपनेको प्राप्त हुआ प्रमेहरोगी ४०० तोले शिलाजितको खा तो फिर नवनि होजाता है ॥ ४४ ॥
इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिता भाषाटीकायांचिकित्सितस्थाने द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
त्रयोदशोऽध्यायः ।
अथातो विद्रधिवृद्धिचिकित्सितं व्याख्यास्यामः ।
इसके अनंतर विद्रधिवृद्धिचिकित्सितनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । विद्रधिं सर्वमेवामं शोफवत्समुपाचरेत् ॥ प्रततं च हरेद्रक्तं पक्क तु व्रणवत्क्रिया ॥ १ ॥
सब प्रकार की कच्ची विद्रधीको शोजाकी तरह चिकित्साकरे और नित्यप्रति रक्तको निकास और पकी हुई विद्रधी में घावकी तरह चिकित्सा करे ॥ १ ॥
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