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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (६०५) वोन्नतम् ॥ ५१ ॥ शल्यं स्यात्सेवनी मुक्त्वा यवमात्रेण पाटयेत् ॥ अश्ममानेन न यथा भिद्यते सा तथा हरेत् ॥५२॥समयं सर्पवक्रेण स्त्रीणां बस्तिस्तु पार्श्वगः॥गर्भाशयाश्रयस्तासां शस्त्रमुत्सङ्गवत्ततः ॥ ५३ ॥ न्यसेदतोऽन्यथा ह्यासां मूत्र स्रावी व्रणो भवेत्॥मूत्रप्रसेकक्षरणान्नरस्याप्यपि चैकधा॥५४॥ बस्तिभेदोऽश्मरीहेतूः सिद्धिं याति न तु द्विधा ॥ पीछे उपस्निग्ध शुद्ध और कुछेक कर्शित ॥ ४५ ॥ अभ्यक्त तथा स्वेदित शरीरवाले भोजनको नहीं कियेहुए बलि होम आदि मंगलकम्मों को करनेवाले गोडोंतक फलक अर्थात आसनविशेषमें स्थित हुये अन्यमनुष्यकी गोदमें आश्रित हुआ ॥ ४६ ॥ और पूर्वसंज्ञक अर्थात् ऊपरके शरीरसे सीधाहुआ और वस्त्रके चुंभल अर्थात् इंदुआयें बैठे हुए तिस पथरीवाले रोगीको करके तिसरोगीके कुछेक कुटिलरूप गोडे और कुहनीको कर पीछे दृढरूप वस्त्र करके।।४७॥बंधेहुए और आश्रयवाले मनुष्यकरके आश्वासित किये तिस रोगीकी नाभिके सबतर्फ नीचेको मालिस करै पीछे तिस नाभिके वामीपार्श्वमें ॥ ४८॥ मुष्टिकरके इच्छाके अनुसार मर्दनकर जब पथरी नाचेको प्राप्त होजावे तब तेलसे भिगोई हुई और नहीं बढेहुये नखोंसे संयुक्त और बायें हाथकी तर्जनी और मध्यमा अंगुलि योंको ॥४९॥ गुदामें प्राप्त कर पीछे सीमनको और वलयको और नाभीको प्राप्त होकर पीछे पथरीको प्राप्तहो गुदा और लिंगके मध्यमें कर ॥ ५० ॥ निर्वलीक और विस्तारसे रहित बस्तिस्थानको कर पीछे पूर्वोक्त दोनों अंगुलियोंकरके जबतक गांठकी तरह ऊंची पथरी होवे तबतक पीडित करै ॥५१॥ पीछे सीमनके वामें तर्फको जवके समान सीमनको त्याग पीछे पथरीके अनुमान करके शस्त्रके द्वारा फाडै, परंतु ऐसी विधि करै कि जैसे वह पथरी टूट नहीं जावे ॥ ५२॥ अर्थात् सर्पके फणसरीखे यंत्र करके साबत पथरीको बँचे, क्योंकि टूटीहुई पथरी फिर बढ जातीहै और स्त्रियोंका बस्तिस्थान पार्श्वमें प्राप्त होनेवाला और गर्भाशयके आश्रित होताहै इसकारणसे तिन स्त्रियोंको उत्संगकी तरह नीचेको शस्त्रका पात करावै ॥ ५३॥ जो ऐसे नहीं करै तौ तिन स्त्रियोंके मूत्रको शिरानेवाला घाव उपडताहै, और मूत्रका प्रसेक शिरनेसे पुरुषको भी मूत्रस्रावी घाव उपजताहै, एकप्रकारसे ॥ ५४ ॥ अश्मरी हेतुवाला बस्तिभेद सिद्धिको प्राप्त होताहै और दोप्रकारोंवाला बस्तिभेद सिद्धको प्राप्त नहीं होताहै कारण कि उससे व्रण होताहै ।। विशल्यमुष्णपानीयद्रोण्यांतमवगाहयेत्॥५५॥तथा न पूर्यते स्रेण बस्तिः पूर्णे तु पीडयेत् ॥ मेदतः क्षीरिवृक्षाम्बु मूत्रं संशोधयेत्ततः ॥५६॥ कूर्य्याद्गुडस्य सौहित्यं मध्वाज्याक्तत्रणः पिवेत्॥द्वौ कालो सघृतां कोष्णां यवागू मूत्रशोधनैः ॥५७ ॥ यहं दशाहं पयसा गुडाव्येनाल्पमोदनम् ॥ भुञ्जीतोय फलाम्लैश्चरसैगङ्गलचरिणाम् ॥ ५८ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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