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( ५९६ )
अष्टाङ्गहृदये
जो मनुष्य अल्पअग्निपनेसे क्षीण हुये कफमें पक और शिथिल विष्ठाको ॥ ६९ ॥ त्यागता है वह सेंधानमक और सूंठसे संयुक्त घृतको अल्प अल्प पानकरै, तिसकरके अपने मार्गमें प्राप्तहुआ और अपने कर्म युक्त हुआ || ७० ॥ समानवायु अग्निको दीपित करता है, क्योंकि यह समानबायु अनको जगानेवाला कहा है ||
पुरीषं यश्च कृच्छ्रेण कठिनत्वाद्विमुञ्चति ॥ ७१ ॥ स घृतं लवणैर्युक्तं नरोऽनावग्रहं पिवेत् ॥
और जो मनुष्य कठिनपनेसे कष्टकरके विष्ठाको त्यागे ॥ ७१ ॥ वह मनियारीनमक सेंधानमक कालानमक सांभरनमक साधारण नमकसे संयुक्त और अन्नके साथ वेगकरके अनावष्टंभवाले घृतकों पीवै ॥
रौक्ष्यान्मन्देऽनले सर्पिस्तैलं वा दीपनैः पिबेत् ॥ ७२ ॥ क्षारचूर्णासवारिष्टान्मन्दे स्नेहातिपानतः ॥ उदावर्त्तात्प्रयोक्तव्या निरूहस्नेहबस्तयः ॥७३॥ दोषाऽतिवृद्ध्याऽमन्देऽग्नौ संशुद्धोऽन्नविधिं चरेत् ॥ व्याधिमुक्तस्य मन्देऽग्नौ सर्पिरेव तु दीपनम् ॥ ७४ ॥ और रूक्षपनेसे मंद हुई अग्निमें दीपन औपत्रों में सिद्ध किये घृत अथवा तेलको पीवै ॥ ७२ ॥ स्नेहके अत्यंत पीने से मंद हुई अग्निमें खार चूर्ण आसव अरिष्टको पीने और उदावर्तरोगसे मंदहुई अग्निमें निरूहबस्ति और स्नेहवस्ति हित हैं ॥ ७३ ॥ दोषों के अतिवृद्धिकर के मंदहुई अग्निमं मन विरेचन आदिकर के शुद्धिहुए के पश्चात् अन्नविधिको करे और रोगकरके मुक्तहुये मनुष्यकी मंदहुई अग्निमें घृतही दीपनहै || ७४ ॥
अध्वोपवासक्षामत्यैर्यवाग्वा पायये हृतम् ॥
अन्नावपीडितं वल्यं दीपनं बृंहणं च तत् ॥ ७५ ॥
मार्गगमन लंघन सहना इन्होंकर के मंदहुई अग्निमें यवागू के संग घृतको पान करावे परंतु वह घृतयुक्त किये अन्नके मध्यमें पान कराना उचित है यह घृत बलमें हित है और दीपनहे और धातुओं को पुष्टकरता है ॥ ७५ ॥
दीर्घकाल प्रसङ्गात्तु क्षामक्षीणकृशान्नरान् ॥ प्रसहानां रसैःसाम्लैर्भोजयेत्पिशिताशिनाम् ॥ ७६ ॥ लघूष्णकटुशोधित्वाद दीपयन्त्याशु तेऽनलम् ॥ मांसोपचितमांसत्वात्परं च बलवर्द्धनम् ॥ ७७ ॥
दीर्घकालके प्रसंगसे मंदहुई अग्निमें क्षाम क्षीण दुर्बल मनुष्यों को और मांसको खानेवाले तिन मनुष्यों को प्रसहसंज्ञक अर्थात् वत्तकआदि जीवोंके मांसोंके अम्लरूप रसोंकरके भोजन करावे ७६ ॥
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