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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (५८७) तं त्वरया जयेत् ॥ वायोरनन्तरं पित्तं पित्तस्यानन्तरं कफम् ॥१२१॥ जयेत्पूर्व त्रयाणां वा भवेद्यो बलवत्तमः।
क्षीण हुये कफमें और दीर्घ कालसे उपजे अतिसारकरके दुर्बलहुई गुदामें अपने स्थानमें स्थित होनेवाला वायु निश्चय स्थित होजाताहै ॥ १२० ॥ वह बली वायु शीघ्रही रोगीको मारताहै तिस कारणसे पहिले तिस वायुको जीते और वायुके पश्चात् पित्तको जीतै और पित्तके पश्चात् कफको जीते ॥ १२१ ॥ अथवा तीनों दोषोंमें अत्यन्त बलवान् जो हो तिसको पलिले जीते ॥ भीशोकाभ्यामपि चलः शीघ्रं कुंप्यत्यतस्तयोः ॥ १२२ ॥
का- क्रिया वातहरा हर्षणाश्वासनानि च ॥ १२३॥ और भय तथा शोक करकेभी वायु शीघ्र फुपित होता है इसकारणसे भय और शोकसे उपजे अतिसारोंमें ॥ १२२ ॥ वातको हरनेवाली क्रिया और हर्षण और आश्वासन ये हितहैं ॥१२३॥
यस्योच्चाराद्विना मूत्रं पवनो वा प्रवर्तते।
दीप्ताग्नेर्लघुकोष्ठस्य शान्तस्तस्योदरामयः॥ १२४ ॥ ' दीप्त अग्निवाले और हलके कोष्ठवाले जिस मनुष्यके विष्टाके बिना मूत्र अथवा अधोवात प्रवृत्त होजावे तिस मनुष्यका अतिसार रोग गया जानना ॥ १२४ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
चिकित्सितस्थाने नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
दशमोऽध्यायः।
अथातो ग्रहणीदोषचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर ग्रहणीदोषचिकित्सितनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे। ग्रहणीमाश्रितं दोषमजीर्णवदुपाचरेत् ॥ अतीसारोक्तविधिना तस्यामश्च विपाचयेत् ॥१॥ अन्नकाले यवाग्वादि पञ्चकोलादिभिर्युतम् ॥ वितरेत्पटुलध्वन्नं पुनर्योगांश्च दीपनान् ॥२॥दद्यात्सातिविषां पेयामामे साम्लां सनागराम् ॥ पानेऽतिसार विहितं वारि तकं सुरादि च ॥ ३॥ ग्रहणीमें आश्रित हुये दोषको अजीर्णकी तरह उपाचरित करे और ग्रहणीदोषवाले मनुष्यके आमको अतिसारमें कही विधिकरके पकावै ॥ १॥ अन्नकालमें पीपल पीपलामूल चव्य चीतारांठसे संयुक्त यवागू आदिको देवे और हलके तथा सलोने अन्नको और दीपन करनेवालोंको बारंबार देवै
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