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( ५७४ )
अष्टाङ्गहृदये
वास्तुकस्य वा ॥ २१॥ सुवर्चलायाश्चञ्चोर्वा लोणिकाया रसैरपि॥ कूर्म्मवर्त्तकलोपाकशिखितित्तिरिकौक्कुटैः ॥ २२ ॥
जो परिणत हुये आममें और दीप्त हुई अग्निमें ॥ १६ ॥ झाग और पिच्छासे संयुक्त और पीडा से संयुक्त विबंध से संयुक्त वारंवार अल्प अल्प मलसे सहित, अथवा मलसे रहित, मत्रादकरके सहित ऐसा अतिसार निकसे ॥ १७ ॥ तत्र दही तेल घृत दूध इन्होंकरके सहित गुड और सूंठिको पीवै अथवा गुड और तेलके संग खेदित किये बेरोंको खावै ॥ १८ ॥ गाढे विष्टाको रचनेवाले शाक करके तथा दही और अनारमें साधित किये और बहुत से स्नेह करके संयुक्त मांसोंके रसोंकरके क्षुधावाले इस रोगीको ॥ १९ ॥ शालिचावलोंका भोजन देवै, अथवा तिल उडद मूंगमें साधित किये शालिचावलोंको देवै अथवा कचूर, कोमलमूली, पाठा, कुरडुके शाकों के संग शालिचावलों को खावै ॥ २० ॥ अथवा स्नुषा, अजवायन, काकडी, खिरनी, लाल लूंबीके शाकों करके शालिचावलों को खात्रै अथवा पोई, जीवती, बावची के शाकों करके शालिचावलों को खावै ॥ २१ ॥ अथवा ब्राह्मीं, चुंचू, लोणीशाकके शाकों करके शालिचावलें को खावै, अथवा कछुवा, वतक, लोवां, मोर, तीतर, मुरगा इन्होंके मांसों के रसोंकरके शालिचावलों को खावै ॥ २२ ॥ विल्व मुस्ताक्षिभैषज्यधातकीपुष्पनागरैः ॥ पक्वातिसारजित्तके यवागूर्दाधिकीतथा ॥ २३ ॥ कपित्थकच्छुराफञ्जीयूथिकावटशैलजैः॥ दाडिमाशणकार्पासीशाल्मलीमोचपल्लवैः ॥ २४ ॥
बेलगिरी, नागरमोथा, श्वेत लोध, धायके फूल, सूंठ इन्होंकरके तक्रमें बनाई हुई यवागू पक्का - 'तिसारको जीतती है अथवा दही में || २३ || कैथ लाल धमांसा भारंगी जुई वड ककिर अनार शण कपास संभल मोचरस इन्हों के पत्तोंकरके बनाई यवागू पकातिसारको नाशती है ॥ २४ ॥ कल्को बिल्वशलाटूनां तिलकल्कश्च तत्समः ॥
नः सरोऽम्लः सस्नेहः खलो हन्ति प्रवाहिकाम् ॥ २५ ॥
कच्चें बेलफलें|का कल्क और तिलोंका कल्क ये दोनों समान मिला और दहीका अम्लरूप सर ऐसे स्नेहसे संयुक्त किया यह खल प्रवाहिकाको नाशता है || २५ ||
मरिचं धनिकाजाजीतिन्तिडीकशठीविडम् ॥ दाडिमं धातकी पाठा त्रिफला पञ्चकोलकम् ॥ २६ ॥ यावाकं कपित्थाम्रजम्बुम ध्यं सदीप्यकम् ॥ पिष्टैः षड्गुणविल्वैस्तैर्दनि मुद्गरसे गुडे ॥ ॥ २७ ॥ स्नेहे च यमके सिद्धः खलोऽयमपराजितः॥ दीपनःपाचनो ग्राही रुच्यो बिम्बशिनाशनः ॥ २८ ॥
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