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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।। (५५१) उपाच रेत करे और दग्ध हुये बवासीरके मस्सेवाले मनुष्यके वायुकी अनुलोमता और अन्नमें रुचि और जठराग्निकी चतुराई और स्वस्थपना वर्ण और बलका उदये उपजते हैं ॥ १० ॥
बस्तिशूले त्वधो नाभेर्लेपयेत्श्लक्ष्णकल्कितैः॥
वर्षाभूकुष्ठसुरभिर्मिशिलोहामराह्वयैः ॥ ११ ॥ नाभिके नीचे बस्तिस्थानमें शूल उपजै तो सूक्ष्म पीसे हुये शाठि कूठ राल सौंफ अगर देवदार इन्होंकरके लेप करै ॥ ११ ॥
शकुन्मूत्रप्रतीघाते परिषेकावगाहयोः॥वरणालम्बुपैरण्डगोकपटकपुनर्नवैः॥१२॥सुषवीसुरभीभ्यां च क्वाथमुष्णं प्रयोजयेत् ॥ सनेहमथवा क्षीरं तैलं वा वातनाशनम् ॥१३॥ युञ्जीतान्नं शकृतेंदि स्नेहान्वातघ्नदीपनान् ॥ विष्टा और मूत्रके बंधमें परिपेक और स्नानके द्वारा वरण गोरखमुंडी अरंड गोखरू शाठि॥१२॥ कलौंजी रालसे उष्ण किये और लेहसे संयुक्त काथको प्रयुक्त करै अथवा वातको नाशनेवाले दूधको अथवा तेलको प्रयुक्त करै ॥ १३ ॥ और विष्टाको भेदितकरनेवाले अन्नको और वातनाशनेवाल दीपन स्नहोंको प्रयुक्त करै ।।
अथाप्रयोज्यदाहस्य निर्गतान्कफवातजान् ॥ १४॥ संस्तम्भकण्डूरुकच्छोफानभ्यज्य गुदकीलकाना बिल्वमूलाग्निकक्षारकुष्ठैः सिद्धेन सेचयेत् ॥ १५॥ तैलेनाहिबिडालोवराहवसयाथवा ॥ स्वेदयेदनुपिण्डेन द्रवस्वेदेन वा पुनः॥ १६ ॥सक्तूनांपिण्डिका भिर्वा स्निग्धानां तैलसर्पिषा ॥ रास्नाया हपुषाया वा पिण्डै
काळ्गन्धिकैः ॥ १७ ॥
और दाह नहीं प्रयुक्त किये मनुष्यके बाहिरको निकसेहुये और कफवातसे उपजे ॥ १४ ॥ स्तंभ खाज शूल शोजसे संयुक्त गुदाके मस्सोंको बेलपत्रकी जड चीता जवाखार कुठसे सिद्ध किये तेलसे अभ्यक्त कर सेचित करै ॥ १५ ॥ अथवा सर्प बिलाव ऊंट शुअरकी वसा करके सेचित करै और पिंडकरके तथा द्रवस्वेदकरके स्वेदित करै, अथवा तेल और घृत करके स्निग्ध किये सत्तुओंकी पिंडियोंकरके स्वेदित करै, अथवा रायशणके व हाऊरके पिंडोंकरके अथवा कृष्णगंधके पिंडोंकरके स्वेदित करै ॥ १७ ॥
अर्कमूलं शमीपत्रं नृकेशाः सर्पकंचुकम् ॥मार्जारचर्मसर्पिश्च धूपनं हितमर्शसाम् ॥ १८॥ तथाश्वगन्धासुरसा बृहती पि- . प्पली घृतम् ॥
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