SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 609
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५४६) अष्टाङ्गहृदयेश्रेष्ठ शरीर और मुखकी संगति करके अत्यंत सुगंधित और अत्यंत रूप सर और पद्मरागमणिकी समान द्रुतरूप और आसवके रूपको धारणकरनेवाला और रतिके परिश्रम करके अल्प मदिराको पीनेवाले मनुष्यके मद होता है वह मद पराक्रमके क्षयका हेतु है और कामके क्षयको स्याग करता हुआ वह मद्यपायी मनुष्य पीने के पश्चात् शयन करै ॥ ८९ ॥ इत्थं युक्त्या पिबेन्मद्यं न त्रिवर्गाद्विहीयते॥असारसंसारसुखं परमेवाधिगच्छति॥९०॥ ऐश्वर्य्यस्योपभोगोऽयं स्पृहणीयः सुरैरपि ॥ . इस प्रकार करके युक्तिके द्वारा मदिराको पीनेवाला मनुष्य धर्म अर्थ कामसे हीन नहीं होता है और असाररूपी संसारमें अत्यंत सुखको प्राप्त होताहै ॥ ९० ॥ ऐश्वर्यका उपभोगरूप यह मद्य देवताओं करके वांछित करनेको योग्य है । अन्यथा हि विपत्सु स्यात्पश्चात्तापेन्धनं धनम्॥९१॥उपभोगेन रहितो भोगवानिति निन्द्यते॥निम्मितोऽतिकदर्योऽयं विधिना निधिपालकः ॥९२॥ तस्मान्द्यवस्थया पानं पानस्य सततं हितम्॥जित्वा विषयलुब्धानामिन्द्रियाणां स्वतन्त्रताम् ॥ ९३ ॥ और इस प्रकार भोगको नहींकरनेवाला मनुष्य विपत्कालोंमें पश्चात् पछताता है कि मैंने मदिराका पान नहीं किया ॥ ९१ ॥ और स मदिरारूप भोगकरके रहित और अन्य भोगको सेवनवाला मनुष्य निंदाको प्राप्त होताहै क्योंकि ब्रह्माने अतिकदर्य्यरूप और खजानेका पालनेवाला वह मनुष्य रचाहै ॥ ९२ ॥ तिसकारणसे व्यवस्थाकरके मदिराका पान करना निरंतर हितहै परंतु विषयके अभिलाषावाले इन्द्रियोंकी स्वतंत्रताको जीतके नियमसे पान करनेको समर्थ होतहैं ॥९॥ विधिर्वसुमतामेष भाविष्यद्वसवस्तुये॥ यथोपपत्ति तैर्मद्यं पातव्यं मात्रया हितम् ॥९४॥ यावदृष्टेर्न सम्भ्रान्तिावन्न क्षोभते मनः॥ तावदेव विरन्तव्यं मद्यादात्मवता सदा ॥९५॥ धनी पुरुषोंको यही विधि है और जिनको धनके होनेकी वांछाहै ऐसे मनुष्योंकोभी युक्तिके अनुसार मात्राकरके मदिराका पान करना हितहै ॥ ९४ ॥ जबतक दृष्टिकी संभ्राति नहीं होवे और जबतक मन क्षोभको नहीं प्राप्त होवै तबतक बुद्धिमान् मनुष्यको मदिरासे निवृत्ति करनी योग्यहै अर्थात् जब संभ्रांतरूप दृष्टि और क्षुभितरूप मन होने लगे तब मदिराको नहीं पीवै ॥ ९५ ॥ अभ्यङ्गोद्वर्त्तनस्नानवासधूपानुलेपनैः॥ स्निग्धोष्णैर्भावितश्चान्नैः पानं वांतोत्तरः पिबेत् ॥९६॥ शीतोपचारैर्विविधैर्मधुरस्निग्धशीतलैः॥पैत्तिको भावितश्चान्नैः पिबन्मयं न सीदति॥९७॥उप For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy