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___ चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (५०७ ) अवश्यं स्वेदनीयानामस्वेद्यानामपि क्षणम् ॥ स्वेदयेत्ससिताक्षीरसुखोष्णस्नेहसेचनैः॥१५॥ उत्कारिकोपनाहैश्च स्वेदाध्यायोक्तभेषजैः॥उरःकण्ठश्चमूदुभिः सामे त्वामविधिचरेत्॥१६॥ निश्चय स्वेद करनेके योग्योंके और नहीं स्वेदन करनेके योग्योंके क्षणमात्र और मिसरीसहित दूध और सुखपूर्वक गरम स्नेहके सेचन करके ॥१५॥ और स्वेद अध्यायमें कहे हुये औषधोंकरके बनाई हुई लप्सिकारूप उपनाहों करके और कोमल पदार्थोकरके छाती और कंठको स्वेदित करै और आमसहित श्वास और हिचकीवाले रोगीके अर्थ लंघनपाचन आदि हित विधिको करे॥१६॥
अतियोगोद्धतं वातं दृष्ट्वा पवननाशनैः॥
स्निग्धै रसायैनात्युष्णैरभ्यङ्गैश्च शमं नयेत् ॥ १७ ॥ वमन विरेचनके अत्यंत योगसे उद्धृत हुये वायुको देखकर वातको नाशनेवाले और चिकने और न अत्यंतगरम रस आदि अभ्यंगोंकरके शांतिको प्राप्त करै ।। १७ ॥
अनुक्लिष्टकफास्विन्नदुर्बलानां हि शोधनात्॥वायुर्लब्धास्पदो मर्म संशोष्याशु हरेदसून् ॥ १८॥ कषायलेहस्नेहायैस्तेषां संशमयेदतः॥ नहीं उक्लिष्टहुये कफवालोंके और स्वेदितकर्मसे रहितोंके और दुर्बलोंके शोधन करनेसे लब्धस्थानवाला वायु मर्मोको सुखाकै तत्काल प्राणोंको हरता है ॥ १८ ॥ इसवास्ते जो ये पूर्वोक्त । संशोधनके अयोग्य कहेहैं इन्होंको काथ लेह स्नेह इन मादिकरके श्वास और हिचकीको शांत करै।।
क्षीणक्षतातिसारासृक्पित्तदाहानुवन्धजान् ॥ १९॥
मधुरस्निग्धशीतायैर्हिध्माश्वासानुपाचरेत् ॥ और क्षीणक्षत अतिसार-रक्तपित्त-दाहके अनुबंधसे उपजे ॥ १९॥ हिचकी और श्वासोंको मधुर स्निग्ध शीतल आदि रसोंकरके उपचारित करै ।।
कुलत्थदशमूलानां क्वाथे स्युजांगला रसाः॥२०॥यूषाश्च शिग्रु वार्ताककासन्नं वृषमूलकैः ॥पल्लवैर्निम्बकुलकबृहतीमातुलिंगजैः ॥ २१॥ व्याघ्रीदुरालभाएंगीबिल्वमध्यत्रिकण्टकैः॥पेया च चित्रकाजाजी,गीसौवर्चलैः कृता ॥२२॥ दशमलेन वा . कासश्वासहिध्मारुजापहा ॥ कुलथी तथा दशमूलके क्वाथमें जांगलदेशके जीवोंके मांसके रस ॥ २० ॥ और यूप ये हितहैं और सहोजना वार्ताकु कसौदी वांसा मूली नींब परवल कटेहली विजोरा इन सबोंके पत्ते ॥२१॥
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