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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम्। (५०३) भोजनके उपरांत पावै अथवा बकरीके दूधसे संयुक्त पीपल और गुडमें सिद्ध घृतको पीवै।।१६५॥ ये सब घृत क्षयकी खांसीवाले और दोषोंकरके उपलिप्तहुये कंठ और छातीके स्रोतोंकी शुद्धिके अर्थ और अग्निकी वृद्धिके अर्थ कहेहैं ॥ १६६ ॥
प्रस्थोन्मिते यवक्वाथे विंशतिर्विजयाः पचेत् ॥ स्विन्ना मृदित्वा तास्तस्मिन्पुराणात्षट्पलं गुडात् ॥ १६७ ॥ पिप्पल्या द्विपलं कर्ष मनोह्वाया रसाञ्जनात् ॥ दत्त्वा क्षं पचेद्भूयःस लेहः श्वासकासनुत् ॥ १६८ ॥
और ६४ तोलेभर जवोंके क्वाथमें २० हरडोंको पकावै तिस काथमें स्विन्नहुई हरडको मर्दन करके २४ तोले पुराने गुडमें मिलावै।।१६७॥ पीछे ८ तोले पीपल १ तोला मनशिल आधा तोला रसोंत इन्होंको मिलाके तिस लेहको फिर पकावै, यह लेह श्वास और खांसीको नाशताहै।। १६८॥
श्वाविधां सूचयो दग्धाः सघृतक्षौद्रशर्कराः ॥ श्वासकासहरा वहिंपादौ वा मधुसर्पिषा ॥ १६९॥ एरण्डपत्रक्षारं वा व्योषतेलगुडान्वितम् ॥ लेहयेत्क्षारमेवं वा सुरसैरण्डपत्रजम् ॥१७॥ लिह्यात्ल्यूषणचूर्ण वा पुराणगुडसर्पिषा॥ पद्मक त्रिफलाव्योषं विडङ्गं देवदारु च ॥ १७१ ॥ बला रास्ना च तच्चूर्णं समस्तं समशर्करम्॥खादेन्मधुघृताभ्यां च लिह्यात्कासहरं परम् ॥ ॥ १७२ ॥ तद्वन्मरिचचूर्ण वा सघृतक्षौद्रशर्करम् ॥ दग्धकरी सेहकी शूलोंको घृत खांड शहद इन्होंमें मिला खावै तो श्वास तथा खांसीका नाश होताहे और दग्ध किये मोरके पैरभी शहद और धतके संग श्वास और खांसीको हरतेहैं ॥१६९॥ अथवा सूंठ मिरच पीपल तेल गुड करके अन्वित किये अरंडके पत्तोंके खारको चाटै अथवा सँभालू और अरंडके पत्तोंके खारको चाटै ॥ १७० ॥ अथवा सूंठ मिरच पीपलके चूर्णको पुराने गुड और धतके संग चाटै अथवा पद्माख त्रिफला सुंठ मिरच पीपल बायविडग देवदार ॥१७१॥ खरेहटी रायसणके चूर्णमें बराबरकी खांड मिलाय खावै अथवा शहद और घृतके संग चाटै यह खांसीको हरताहै ॥१७२॥ तैसेही मिरचोंके चूरनको घृत शहद खांडसे संयुक्त कर खावै अथवा चाटै ॥ पथ्याशुण्ठीघनगडैर्गुटिकांधारयेन्मुखे ॥१७॥ सर्वेषु श्वासकासेषु केवलं वा विभीतकम् ॥ पत्रकल्कं घृतभृष्टं तिल्वकस्य सशर्करम् ॥१७४॥ पेया वोत्कारिका च्छदितृटकासामातिसारनुत्॥
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