________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(४७६).
अष्टाङ्गहृदयेओषधयो मणयश्च सुमन्त्राः साधुगुरुद्विजदैवतपूजाः॥ प्रीतिकरा मनसो विषयाश्च घ्नन्त्यपि विष्णुकृतं ज्वरमुग्रम्१७५॥ तिस तिस अवस्थामें लंघन, स्वेदन, यवागू, पाचन, दूध, घृत, पान, आदि औषधोंको वैद्य करै और औषधि, मणी, सुंदरमंत्र, सजन, गुरु, ब्राह्मण, देवताकी पूजा और मनकी प्रीतिके करनेवाले सब शब्द आदि विषय ये सब विष्णुकृत उग्रचरकोभी नाशते हैं फिर अपचार आदिसे उपजे ज्वरकी कौन कथा है ॥ १७५ ॥ इति बेरीनिवासिौद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिऋताऽष्टांगहृदयसंहिता-भाषा कायां
चिकित्सास्थाने प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
द्वितीयोऽध्यायः॥
अथातो रक्तपित्तचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर रक्तपित्तचिकित्सितनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । ऊर्ध्वगं बलिनो वेगमेकदोषानुगं नवम् ॥ रक्तपित्तं सुखे काले साधयेन्निरुपद्रवम् ॥१॥ अधोगं थापयेतं यच्च दोपद्वयानुगम्॥ शान्तं शान्त पुनः कुर्यान्मार्गान्मार्गान्तरं च यत्॥२॥ अतिप्रवृत्तं मन्दाग्नेस्त्रिदोषं द्विपथं त्यजेत् ॥ बलवाले मनुष्यके उपरले शरीरों में प्राप्तहुआ वेगवाला एकदोपसे उपजा, नवीन उपद्रवोंसे रहित सुंदरकालमें उपजे रक्तपित्तको वैद्य साधितकरै ॥ १ ॥ नीचेके शरीरमें प्राप्तहोनेवाले और दो दोषोंकी सहायतावाले ऐसे रक्तपित्तको वैद्य कष्टसाध्य जाने और अतिशयकरके शांतहोके फिर कोपको प्राप्त होनेवाले और अपने मार्गसे अन्यमार्गमें गमनकरनेवाले ॥ २॥ और मंदाग्निवाले मनुष्यके अत्यंत प्रवृत्तहोनेवाले और तीनदोषोंकी सहायताबले नीचेके और ऊपरके अंगोंकरके गमनकरनेवाले रक्तपित्तको वैद्य त्यागै ॥
सन्तर्पणोत्थं बलिनो बहुदोषस्य साधयेत् ॥३॥ अर्श्वभागं विरेकेण वमनेन त्वधोगतम् ॥ शमनैर्वृहणैश्चान्यलयबृह्यान वेक्ष्य च ॥ ४॥ ऊर्ध्वं प्रवृत्ते शमनौ रसो तिक्तकषायकौ ॥ उपवासश्च निःशुण्ठीषडंगोदकपायिनः॥५॥अधोगे रक्तपित्ते तु बृहणो मधुरो रसः।।ऊर्ध्वगे तर्पणं योज्यं पेयापूर्वमधोगत॥६॥
For Private and Personal Use Only