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( ४५७ )
चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । पिप्पलीमूलद्राक्षामलकनागरैः ॥ ३१ ॥ कोष्ठे विबद्धे सरुजि पिबेत्तु परिकर्तिनि ॥ कोलवृक्षाम्लकलशीधावनीश्रीफलैः कृताम् ॥ ३२ ॥ अस्वेदनिद्रस्तृष्णार्त्तः सितामलकनागरैः ॥ सिताबदरमृद्वीकासारिवामुस्तचन्दनैः ॥ ३३ ॥ तृष्णाच्छर्दिपरोदाहज्वरनीं क्षौद्रसंयुताम् ॥ कुर्य्यात्पयौषधैरेव रसयूषादि कानपि ॥ ३४ ॥
सत्र पेयाओंसे पहिले 'वानोंकी खीलमें अच्छी तरह पकाईहुई और सूंठ धनियां पीपलसे युक्त पेयाको पीवै ॥ २६ ॥ और जो ज्वरी पुरुष खट्टेकी इच्छा करताहो तो सैंधानमक और अनार - दानें से युक्त पेयाको पी और जिसका मल भेदन होगया हो और बहुत पित्तवाला पुरुष सूंठ, शहदके युक्त ठंढी पेयाको पीवै ॥ २७ ॥ और बस्तिस्थान, पाली, शिरमें शूलवाला पुरुष कटेइली गोखरूमें सिद्ध कीहुई पेयाको पी और पृष्टिपर्णी, खरैहटी, बेलगिरी, सुंठ, कमल, धनियां ॥ २८ ॥ करके सिद्ध कीहुई दीपन और पाचनी खट्टी पेयाको अतिसारत्राला ज्वरी पुरुष पीवै और हिचकी श्वास खाँसी, रोगोंवाला पुरुष लघुपंचमूट में सिद्ध की हुई पेयाको पीवै ॥ २९ ॥ और कफसे पीडित पुरुष बृहत्पंचमूलमें सिद्ध की हुई जवोंकी पेयाको पी और जिसका विष्ठा बंध हो वह पुरुष पीपली आमला करके सिद्ध कीहुई जत्रों की पेयाको पावै ॥ ३० ॥ और घृतमें भूनी हुईं यवागूको और मलदोष के प्रवर्त करनेवालीको चव्य पीपलामूल दाख आमला सूंठ करके सिद्ध की हुई पेयाको ॥ ३१ ॥ पीडासे युक्त और विबद्ध कोष्ठवाला परिकर्त्ती अर्थात् छेदन करने की तुल्य पुरुष वेर अम्लवेत, पिठवन, कटेहली बेलफल से सिद्ध की हुई पेयाको पीवै ॥ ३२ ॥ और पसीना न आना, निद्रा, तृषाकरके पीडित पुरुष मिसरी, आँवला, सूंठ करके सिद्ध अथवा मिसरी बेर, मुनक्कादाख, अनंतमूल, नागरमोथा चंदनसे सिद्ध की हुई पेयाको पीवै ॥ ३३ ॥ और तृष छर्दि, दाह, ज्वरको नाश करनेवाली पेयाको शहद करके पी और पेयाको औषधों करकेही सिद्ध बनावे और रस अर्थात् मांसरस यूष इत्यादिकोंकोभी औषधोंकरके बनावे ॥ ३४ ॥
मद्योद्भवे मद्यनित्ये पित्तस्थानगते कफे ॥ ग्रीष्मे तयोर्वाधिकयोस्तृट्छर्दिदाहपीडिते॥३५॥ ऊर्ध्वं प्रवृत्ते रक्ते च पेयान्नेच्छन्तिऔर मदिरा से उपजे ज्वर में नित्य मदिरा पीनेवाले पुरुषका और पित्तस्थान में कफ प्राप्तहोरहा हो तब अथवा ग्रीष्मऋतु, पित्त कफ अधिक हो रहाहो और तृषा छर्दि, दाहसे, पीडित पुरुष ||३५|| और रक्त ऊर्ध्वस्थानमें प्रवृत्त हो रहा हो तब पेया देनी नहीं चाहिये ||
तेषु तु ॥ ज्वरापहैः फलरसैरद्भिर्वा लाजतर्पणम् ॥३६॥ पिबेत्स शर्कराक्षौद्रं ततो जीर्णे च तर्पणे ॥ यवाग्वामोदनं क्षुद्वान
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