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(४५६)
अष्टाङ्गहृदये. लङ्घनं स्वेदनं कालो यवागूस्तिक्तको रसः॥२१॥
मलानां पाचनानि स्युर्यथावस्थं क्रमेण वा ॥ लंघन, स्वेदन, काल अर्थात् छ:दिनकी अवधि, यवागू, कडुआ रस ॥ २१॥ ये अवस्थाक अनुसार क्रम करके मलोंके पाचकहैं ।
शुद्धवातक्षयागन्तुजीर्णज्वारिषु लङ्घनम् ॥ २२॥
नेष्यते तेषु हि हितं शमनं यन्न कर्शनम् ॥ और शुद्धवात अर्थात् आमदोष आदिसे रहित और धातुक्षयसे उपजे आगंतुक, जीर्णज्वर ज्वरवाले पुरुषों को लंघन करवाना ॥ २२ ॥ नहीं कहा है, क्योंकि तिन्होंके दोषों का शमन करना हित है उसे संतर्पण आदिसे शान्त करै जिसे बलबना रहे शमन धातुओंको बढाता है ।
तत्र सामज्वराकृत्या जानीयादविशेषितम् ॥ २३ ॥ द्विविधो पक्रमज्ञानमवेक्षेत च लङ्घने ॥ युक्तं लंधितलिङ्गैस्तु तं पेया भिरुपाचरेत् ॥ २४॥ यथा स्वौषधसिद्धाभिर्मण्डपूर्वाभिरादितः ॥ तस्याग्निर्दीप्यते ताभिः समिद्भिरिव पावकः ॥ २५॥ षडहं वा मृदुत्वं वा ज्वरो यावदवाप्नुयात् ॥ इन ज्वरोंके मध्यमें आमज्वरक लक्षणकरके लंघन करवाना चाहिये ।। २३॥ और लंघनविषे द्विविधोपक्रमणीय अध्यायमें कहे हुए लक्षणको देखै अर्थात् विमल इन्द्रियादिकोंको देखै और जो पुरुष लंघन कियेहुयेके लक्षणों करके युक्त हो तिसको पेयाआदि देनी चाहिये ॥ २४ ॥ और यथार्थ औषधोंमें और मांड आदिकोंमें सिद्ध कीहुई पेया पिलानेसे तिस वरी पुरुषकी अग्नि दीप्त होती है जैसे समिधासे अग्नि ॥ २५॥ और छ:दिनके उपरान्तभी जबतक ज्वर मृदु न हो सबतक पेया देनी चाहिये ज्वरके मृदु होनेपर पाचन देना चाहिये ।
प्राग्लाजपेयां सुजरा सशुण्ठीधान्यपिप्पलीम्॥२६॥ससैन्धवां तथाम्लार्थी तां पिबेत्सहदाडिमामासृष्टविड्बहुपित्तो वा सशुण्ठिमाक्षिकां हिमाम्॥२७॥बस्तिपार्श्वशिरःशूली व्याघ्रीगो क्षुरसाधिताम्॥पृश्निपर्णीवलाबिल्वनागरोत्पलधान्यकैः ॥२८॥ सिद्धांज्वरातिसार्याम्लांपेयां दीपनपाचनीम्॥ह्रस्वेन पञ्चमूलेन हिकारुक्ष्वासकासवान्॥२९॥पञ्चमूलेन महता कफा? यवसाधिताम् ॥ विबद्धवाः सयवां पिप्पल्यामलकैःकृताम् ॥ ३०॥ यवागू सर्पिषा भृष्टां मलदोषानुलोमनीम् ॥ चविका
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