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( ४५२ )
मष्टाङ्गहृदये
शिरोग्रह, हृद्रोग, मुखशोष, होजाते हैं ||११|| उदान करके आवृत हुये प्राणवायुमें वर्ण पराक्रम का नाश होजाता है, इस थोडेही लक्षणसे चतुर वैद्य सब प्रकार के आवरणका विभागकरे ॥ १२ ॥ परंतु वायुओंके स्थानोंको और कमोंकी वृद्धि ॥
प्राणादीनां च पञ्चानां मिश्रमावरणं मिथः॥ ५३ ॥ पित्तादिभिर्द्वादशभिर्मिंश्राणां मिश्रितैश्च तैः ॥ मिश्रः पित्तादिभिस्तद्वत्प्राणादिभिरनेकधा ॥५४ || तारतम्यविकल्पाच्च यात्यावृत्तिरसङ्घयताम् ॥ तां लक्षयेदवहितो यथास्वं लक्षणोदयात् ॥ ५५ ॥ शनैः शनैश्चोपशयानूडामपि मुहुर्मुहुः ॥
और हानिको देख कर प्राण आदि पांच वायुओंका आपस में मिला हुआ आवरण कहा है|| ५३ ॥ और पित्त आदि मिश्रितहुये बारहोंसे मिश्रहुये प्राण आदिकोंका आपसमें मिला हुआ आवरण कहा है, और तिन्ही बारह पित्त आदिकोंकी तरह अनेक प्रकारका आवरण कहा है || ५४ ॥ तारतम्यके विकल्प से आवृत्ति असंख्यपनेको प्राप्त होती है तिसको लक्षणके उदयसे यथायोग्य जैसे होवे तैसे सावधान वैद्य लक्षितकरे || ११ || और तिसी लक्षणोदयसे हौले हौले बारबार क्षण क्षण में दूसरों के उपशय से गूढदुईभी आवृत्ति लक्षित करें ॥
विशेषाज्जीवितं प्राण उदानो बलमुच्यते ॥ ५६ ॥ स्यात्तयोः पीडनाद्धानादायुपश्च बलस्य च ॥ आवृता वायवोऽज्ञाता ज्ञाता वा वत्सरं स्थिताः ॥ ५७ ॥ प्रयत्नेनापि दुःसाध्या भवे
युर्वानुपक्रमाः ॥
और विशेषकरके जीवित रूप प्राण वायु हैं और उदान वायु बलरूप कहा जाता है ॥ ५६ ॥ तिस प्राणवायु और उदान वायुके पीडन और क्षोभणसे आयुका और बलका नाश होता है औरं आवृत हुई वायु नहीं जानी हुई अथवा जानी हुई एक वर्षतक स्थितिको प्राप्त होजावे तो ॥ १७ ॥ प्रयत्न करके रोगभी दुःसाध्य होजाते हैं अथवा चिकित्सा के योग्य नहीं रहते ॥
विद्रधिलीहहृदोगगुल्माग्निसदनादयः॥ भवन्त्युपद्रवास्तेषामावृतानामुपेक्षणात् ॥ ५८॥ इति श्रीसिंह गुप्तसूनुवाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां तृतीयं निदानस्थानं समाप्तम् ॥३॥ इसकारण आवृत्तिसे सब वायु यत्नसे रक्षा करनेके योग्य हैं | और तिनआवृत हुये वायुओं की चिकित्सा नहीं की जाये तो विद्रधि, प्लीहरोग, हृद्रोग, गुल्म रोग, मंदाग्नि, आदि उपद्रव होते हैं || ५८ !
यहां सिंहगुप्तका पुत्र वाग्भटविरचित अष्टांगहृदयसंहिता में तीसरा निदानस्थान समाप्त हुआ || ३ ||
इति पूर्वार्द्ध समाप्तम् ।
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