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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
चतुर्दशोऽध्यायः ।
अथातः कुष्ठश्वित्रकृमिनिदानं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर कुट विकुष्ट कृमिरोग निदाननामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । मिथ्याहारविहारेणविशेषेण विरोधिना। साधुनिन्दावधान्यस्व हरणायैश्च सेवितैः ॥ १ ॥ पाप्मभिः कर्मभिः सद्यः प्राक्तनैः प्रेरिता मलाः ॥ शिराः प्रपद्य तिर्यग्गास्त्वग्लसीका सृगाभिषम् ॥ २ ॥ दूषयन्ति थीकृत्य निश्चरन्तस्ततो वहिः ॥ त्वचः कुर्वन्ति वैवर्ण्यं दुष्टाः कुष्ठमुशन्ति तत् ॥ ३ ॥ कालेनोपोक्षितं यस्मात्सर्वं कुष्णाति तद्वपुः ॥ प्रपद्य धातूम्व्याप्यान्तः सर्वा - न्संक्लेद्य चावहेत् ॥४॥ सस्वेदक्लेदसंकोथान्कुमीन्सूक्ष्मान्सुदारुणान् ॥ रोमत्वक्त्रायुधमनीतरुणास्थानि यैः क्रमात् ॥ ५ ॥ भक्षयेच्छ्रित्रमस्माच्च कुष्ठबाह्यमुदाहृतम् ॥
मिथ्यारूप भोजन और क्रीडा करके और विशेषरूप विरोधि पदार्थकरके और सज्जनकी निंदा, जीवका मारना और दूसरेके द्रव्यको चोरना आदिकमों को अत्यंत सेवने करके ॥ १ ॥ और अन्य जन्मके किये हुये पापरूप कर्मोंकार के प्रेरित किये और दुष्टहुये वातआदि दोष तिरछे गमन करनेवाली नाडियोंमें प्राप्त होके त्वचा, लसीका, रक्त मांस इन्होंको ॥ २ ॥ दूषित करते हैं तथा त्वचाआदिको शिथिलकरके बाहिरको निकसतेहुये त्वचाको वर्ण से रहितकरदेते हैं तिसको मुनिजन कुष्ट कहते हैं ॥ ३ ॥ जिसहेतुसे नहींचिकित्सित किया यह रोग कालकर के सकल शरीरको बिगाड़ देता है इसवांस्ते इसको कुछ कहते हैं और यह कुष्ट सब धातुओं में प्राप्तहो पीछे भीतर को व्याप्त हो पीछे तिन्हीं धातुओं को संक्तेदितकर ॥ ४ ॥ स्वेद, क्लेद, संकोथ इन्होंसे संयुक्त और सूक्ष्म रूप और अत्यंत दारुणरूप कीडोंको करता है और जिनसे रोम, त्वचा, नस, धमनी, तरुण हड्डी क्रमसे ॥ ५ ॥ भक्षित किये जाते हैं तिसको श्वित्ररोग कहते हैं इसीवास्ते यह रोग कुष्ठ रोगसे बाहिर कहा है ॥
कुष्ठानि सप्तधा दोषैः पृथमिश्रैः समागतैः ॥ ६ ॥ सर्वेष्वपि - त्रिदोषेषु व्यपदेशोऽधिकत्वतः ॥ वातेन कुष्ठं कापालं पित्तादौ दुम्बरं कफात् ॥ ७ ॥ मण्डलाख्यं विचर्ची च ऋक्षाख्यं वातपित्तजम् ॥ चर्मैककुष्ठं किटिभसिध्मालसविपादिकाः॥८॥
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