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(४२२)
अष्टाङ्गहृदये
बाहिरले स्रोतोंमें तिरछा आश्रित हुआ पसीना उपजता है ॥ ४१॥ पीछे तिस पानीको कुक्षिमें अफारेको प्राप्तकर पिच्छाको करता है तब भारी और स्थिर और गोल और हाथ आदिसे नहीं शब्दको करता हुआ और आहतरूप।।४२॥कोमल पंक्तियोंसे रहित, ऐसा उदर हो जाता है और यह नाभिमें छुहाजावे तो फैल जाता है, पीछे इसमें जलकी उत्पत्ति होती है, पीछे अत्यंत कुक्षिकी वृद्धि होती है ॥४३॥ और पीछे नाडियां नहीं दीखती हैं और जलोदरके सब लक्षण दीखते हैं ।
वातपित्तकफप्लीहसन्निपातोदकोदरम् ॥४४॥ कृच्छ्रे यथोत्तर पक्षात्परं प्रायोऽपरे हतः॥ सर्वं च जातसलिलं रिष्टोक्तोपद्रवान्वितम् ॥४५॥ जन्मनैवोदरं सर्वं प्रायः कृच्छ्रतमं मतम् ॥ बलिनस्तदजाताम्बु यन्न साध्यं नवोत्थितम् ॥ ४६॥ वात, पित्त, कफ, प्लीहा, सन्निपात, जल इन्होंसे उपजे उदररोग ॥ ४४ ॥ उत्तरोत्तर क्रमसे कष्टसाध्य कहे हैं और बद्धोदर तथा क्षतोदर १५ दिनके पीछे मनुष्यको मारते हैं और पानी उत्पन्न हुएसे अरिष्ट अध्यायमें कहेहुये उपद्रवोंसे संयुक्त सव उदररोग मनुष्यको मारते हैं ॥४५॥ जन्मसेही उत्पन्न होते सब प्रकारके उदररोग अत्यंत कष्टसाध्य कहे हैं और बलवाले मनुष्यके नका उपजा और पानीकी उत्पत्तिसे रहित उदररोग साव्यभी कहा है ॥ ४६ ॥ ___ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिता-भाषाटीकाय
निदानस्थाने द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
त्रयोदशोऽध्यायः।
-colomo-eअथातः पाण्डुरोगशोफविसर्पनिदानं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर पांडुरोग शोजा विसर्परोग निदाननामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे। पित्तप्रधानाः कुपितायथोक्तैःकोपनैर्मला।तत्रानिलेन बलिना क्षिप्तं पित्तं हृदि स्थितम्॥१॥धमनीर्दश सम्प्राप्य व्याप्नुवत्सकलांतनुम्॥श्लेष्मत्वग्रक्तमांसानि प्रदूष्यान्तरमाश्रितम् ॥२॥ त्वङ्मांसयोस्तत्कुरुते त्वचि वर्णान्पृथग्विधान ॥ पाण्डुहारिद्रहरितान्पांडुत्वं तेषु चाधिकम्॥३॥यतोऽतःपाण्डुरित्युक्तः स रोगस्तेन गौरवम्॥धातूनां स्याञ्च शैथिल्यमोजसश्च गुणक्षयः ॥४॥ ततोऽल्परक्तमेदस्को निःसारःस्यात्श्लथेन्द्रियः॥मृद्यमानैरिवाङ्गैर्नाद्रवता हृदयेन च ॥५॥शूनाक्षिकूटः सदनाकोपनः
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