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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (४२१) और हड्डी, तृण, कांटा, पत्थर, धातु, सींग, काठ आदि शल्योंकरके मिलेहुये अथवा अत्यंत मात्रावाले अन्नोंके भोजनसे ॥ ३२ ॥ जो आंत भेदित होजाता है अथवा पाकको प्राप्त होता है, तब तिन छिद्रोंकरके बाहिरको झिरताहुआ कच्चारूप विष्ठाके रससे संयुक्त और अल्प अल्प आम गुदामें प्राप्त होता है ॥ ३३ ॥ परंतु मुर्दाकी गंधके तुल्य गंधवाला और पिच्छिल पीला लाल शेष रहा रस पेटको पूरितकरके घोररूप उदररोगको प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ तब नाभिके नीचे जलसे संयुक्त हुआ अधिकरूप दोषोंकी आकृतिवाला श्वास, तृषा, भ्रमसे व्याप्त उदर होजाता है ॥ ३५ ॥ इसको छिद्रोदर कहते हैं और अन्य आचार्य पारस्रावि, कहते हैं। . प्रवृत्तस्नेहपानादेः सहसाऽऽमाम्बुपायिनः॥३६॥ अत्यम्बुपानान्मन्दाग्नेः क्षीणास्यातिकृशस्य वा ॥ रुद्धाऽम्बुमार्गाननिलः कफश्च जलमूच्छितः॥ ३७॥ वर्धयेतां तदेवाम्बु तत्स्थानादुदराश्रितौ ॥ ततःस्यादुदरं तृष्णागुदगुतिरुजायुतम् ॥३८॥ कासश्वासारुचियुतं नानावर्णशिराततम् ॥तोयपूर्णदृतिस्पर्शशब्दप्रक्षोभवेपथुः ॥३९॥ स्नेह और वमन आदिकोको सेवनेवाला मनुष्य कारणके विना कच्चेपानीके पान करनेवालेके ॥ ३६॥ अत्यंत पानीके पीनेसे और मंदाग्निवालेके क्षीणके और अत्यंत दुबलेके पानीसे मूच्छित हुआ कफ, वात पानीके मार्गोको रोकिकर ॥ ३७ ॥ पीछे पेटमें आश्रितहुये दोनों वात और कफ पानीको बढाते हैं पीछे तृषा, गुदाका झिरना, शूलसे संयुक्त ॥ ३८॥ और खांसी, श्वास, अरुचीसे संयुक्त और अनेक वर्णवाली नाडियोंसे संयुक्त और पानीकरके पूरित चामकी मसकके समान स्पर्श, शब्द, क्षोभ, कंपवाला ॥ ३९०॥ दकोदरं महस्निग्धंस्थिरसावृत्तनाशि तत् ॥ उपेक्षया च सर्वेषु दोषाः स्वस्थानतश्च्युताः ॥ ४० ॥ पाकावाद्वीकुर्युः सन्धिस्रोतोमखान्यपि ॥स्वेदश्च बाह्यस्रोतस्सु विहतस्तिर्यगास्थितः ॥४१॥ तदेवोदकमाध्माप्य पिच्छां कुर्यात्तदा भवेत्॥गुरूदरं स्थिरं वृत्तमाहतं च न शब्दवत् ॥ ४२ ॥ मृदु व्यपेतराजीकं नाभ्यां स्पृष्टं च सर्पति।तदनूदकजन्मास्मिन्कक्षिवृद्धिस्ततोऽ धिकम् ॥ ४३ ॥ शिरान्तर्धानमुदकजठरोक्तं च लक्षणम्॥ अत्यंत स्निग्ध स्थिर और चारोंतर्फसे गोलं नाभिवाला उदर होजाता है तिसकों दकोदर अर्थात् जलोदर कहते हैं, सब उदर रोगोंमें नहीं चिकित्सा करनेसे अपने स्थानसे भ्रष्टहुये वात, पित्त, कफ, ॥ ४० ॥ संधियोंके स्रोत और मुखोंका पाकसे और द्रवसे द्रवीभूतकरते हैं और For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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