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(४१८)
अष्टाङ्गहृदयेपंक्तियोंकी उत्पत्ति और बलियोंका नाश होताहै तंद्रा देहकी शिथिलता विष्ठाका बंध अग्निका मंदपना ॥ ८॥ दाह, शोजा, अफारा, अंतमें, पानीकी प्राप्ति ॥
सर्वं त्वतोयमरुणमशोफं नातिभारिकम् ॥ ९॥ गवाक्षितं शिराजालैः सदा गुडगुडायते ॥ नाभिमन्त्रं च विष्टभ्य वेगं कृत्वा प्रणश्यति ॥ १०॥ मारुतो हृत्कटीनाभिपायुवंक्षणवेदनः॥ सशब्दोनिश्चरेद्वायुर्विड्बन्धो मूत्रमल्पकम् ॥ ११ ॥ नातिमन्दोऽनलो लौल्यं न च स्याद्विरसं मुखम् ॥ सब उदररोग वर्णसे लाल शोजासे रहित तथा अतिशयकरके भारीपनसे रहित ॥ ९॥ शिराके समूहोंकरके निरंतर आक्रांत, सब कालमें गुडगुडशब्दको करनेवाले वायु नाभिको तथा आंतके स्तब्धपनको प्राप्तकर और वेगको करके आप नष्ट होता है ॥ १० ॥ और हृदय, कटि, नाभि गुदा, अंडसंधिमें पीडावाला और शब्दसे सहित वायु भीतरसे निकलता है तब विष्टाका बंध और मूत्रकी अल्पता होती है ॥ ११ ॥ और अग्निकी अत्यंत मंदता नहीं होती रसोंको ग्रहण करनेकी इच्छा नहीं उपजती और रससे रहित मुख होजाता है ।।
तत्र वातोदरे शोफः पाणिपान्मुष्ककुक्षिषु॥१२॥ कुक्षिपार्यो. दरकटीपृष्ठरुक्पर्वभेदनम् ॥ शुष्ककासाङ्गमर्दोऽधोगुरुता मलसंग्रहः ॥ १३ ॥ श्यावारुणत्वगादित्वमकस्माद्वृद्धिह्रासवत् ॥ सतोदभेदमुदरं तनु कृष्णशिराततम् ॥१४॥ आध्मातहतिवच्छब्दमाहतं प्रकरोति च॥वायुश्चात्र सरुक्छब्दो विचरेत्सर्वतोगतिः॥१५॥ पित्तोदरे ज्वरो मूर्छा दाहस्तूंट् कटुकास्यता॥ भ्रमोऽतिसारः पीतत्वं त्वगादावुदरं हरित्॥१६॥ पीत. ताम्रशिरानद्धं सखेदं सोष्म दह्यते॥धूमायति मृदुस्पर्श क्षिप्रपाकं प्रदूयते ॥१७॥ श्लेष्मोदरेऽङ्गसदनं स्वापश्वयथुगौरवम्॥ निद्रोक्लेशोरुचिःश्वासः कासः शुक्लत्वगादितां ॥ १८॥ उदरं स्तिमितं श्लक्ष्णं शुक्लराजीततं महत् ॥ चिराभिवृद्धि कठिनं शीतस्पर्श गुरु स्थिरम् ॥ १९ ॥ त्रिदोषकोपनैस्तैस्तैः स्त्रीदत्तैश्चरजोमलैः॥
और तिन उदररोगोंके मध्यमें वातसे उपजे उदररोगमें हाथ,पैर,वृषण,कुक्षि, इन्होंमें शोजा॥१२॥ और कुक्षि, पशली, पेट, कटी, पृष्ठभागमें शूल, संधियोंका भेदन, सूखी खांसी, अंगोंका टूटना नीचेके अंगोंमें भारीपन, मलका संग्रह ॥ १३ ॥धूम्र और लालवर्णवाली त्वचा आदि और आपही
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