________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
निदानस्थानं भाषार्टीकासमेतम् । (४१७)
द्वादशोऽध्यायः। अथात उदरनिदानं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर उदरनिदान नामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे। रोगास्सर्वेऽपि मन्देऽग्नौ सुतरामुदराणि तु॥अजीर्णान्मलिनैश्चान्नैर्जायन्ते मलसञ्चयात् ॥१॥ ऊर्ध्वाधो धातवो रुद्धा वाहिनीरम्बुवाहिनीः ॥ प्राणाग्न्यपानान्सन्दूष्य कुर्युस्त्वङ्मांससंधिगाः ॥२॥॥ आध्माप्य कुक्षिमुदरमष्टधा तच्च भिद्यते ॥ पृथग्दोषैः 'समस्तैश्च प्लीहबद्धक्षतोदकैः ॥३॥ तेनार्ताः शुष्कताल्वोष्ठाः शूनपादकरोदराः॥नष्टचेष्टाबलाहाराः कृशाः प्रध्मातकुक्षयः॥४॥ स्युः प्रेतरूपाः पुरुषा भाविनस्तस्य लक्षणम् ॥
अग्निकी मंदता होनेसे अतिशयकरके सब पेटके रोग अजीर्णसे तथा मलिन अन्नोंके खानेसे तथा मलके संचयसे उपजते हैं ॥ १ ॥ धातु, त्वचा, मांस संधि इन्होंमें प्राप्तहुई पानीको बहानेवाली नाडियोंके नीचे तथा ऊपरको रोकिकर और प्राण, अग्नि, अपान, इन्होंको दूषित करके ॥ २॥ कुक्षिपे अफाराकर उदररोगको करते हैं वह उदर रोग वात, पित्त, कफ, सन्निपात, प्लीह. बद्ध, क्षत, जल, इन्होंकरके आठ प्रकारका है ॥ ३ ॥ तिस उदररोगकरके पीडित मनुष्य सूखे हुये तालु और ओष्ठवाले और पैर हाथ पेटपै शोजावाले और चेष्टाकी नष्टतावाले बलको हरनेवाले और माडे और अफारासे संयुक्त कुक्षिवाले ॥ ४ ॥ और प्रेतरूपसे होजातेहैं, अब होनेवाले उदररोगका, पूर्वरूपका लक्षण कहतेहैं ।
क्षुन्नाशोऽन्नं चिरात्सर्वं सविदाहं च पच्यते ॥५॥ जीर्णाजीर्ण नजानाति सौहित्यं सहते न च ॥ क्षीयते बलतः शश्वसित्यल्पेऽपि चोष्टते ॥६॥ वृद्धिर्विशोऽप्रवृत्तिश्च किञ्चिच्छोफश्च पादयोः ॥ रुग्बस्तिसन्धौ ततता लघ्वल्पभोजनैरपि ॥ ७॥ राजी जन्म वलीनाशो जठरे जठरेषु तु ॥ सर्वेषु तन्द्रा सदनं मलसङ्गोऽल्पवाहिता॥ ८॥ दाहः श्वयथुराध्मानमन्ते सलिलसम्भवः ॥
क्षुधाका नाश दाहसहित अन्नका चिरकालमें पकना ॥ ५ ॥ जीर्णअजीर्णको नहीं जानना और . परिपूर्णभोजनतृप्तिको नहीं सहना और निरंतर बलसे क्षीणपना अल्प चेष्टाकरनेमें निरंतर श्वासका लेना ॥ ६ ॥ विष्ठाकी वृद्धि अथवा अप्रवृत्ति और पैरोंमें कछुक शोजा और बस्तिकी संधिौशल. और हलके तथा अल्परूप भोजनोंकरकेभी बस्तिकी संधिमें अफारा ॥ ७ ॥ तथा पेट रोगोंमें पेटमें
For Private and Personal Use Only