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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थान भाषाटीकासमेतम् । ( ४१३ ) करता है और भीतरको प्रपीडितहुआ वही वायु शब्द करताहुआ प्राप्त होता है और छुटा हुवा वह वायु अफाराको करता हुआ फिर आके प्राप्त होता है ॥ ३० ॥ यह वातवृद्धिके समान आका - वाला अन्न्रवृद्धि असाध्य होता है ।' रूक्षकृष्णारुणशिरातन्तुजालगवाक्षितः ॥ ३१ ॥ गुल्मोऽष्टधा पृथग्दोषैः संसृष्टैर्निचयं गतैः ॥ आर्त्तवस्य च दोषेण नारीणां जायतेऽष्टमः ॥३२॥ ज्वरच्छद्येतिसाराद्यैर्वमनाद्यैश्चकमभिः ॥ कर्शितो वातलान्यत्ति शीतं वाम्बु बुभुक्षितः ॥ ३३ ॥ यः पिबत्यनु चान्नानि लंघनं प्लवनादिकम् ॥ सेवते देहसंक्षोभिच्छर्दि वा समुदीरयेत् ॥ ३४ ॥ रूखा, काला, लाल शिरा, तंतुजाल करके निरंतर आनंदितहुवा गुल्म ॥ ३१ ॥ वातपित्त कफ से और वातपित्तसे वातकफ से पित्तकफसे और सन्निपात से और स्त्रियों के शरीर में आर्तवके दोषक-रके आठ प्रकारका है || ३२ ॥ ज्वर, छार्द, अतिसार आदिरोगोंकरके और वमन आदिकम करके कार्शितहुआ मनुष्य वातको उपजानेवाले अन्नों को खावे, अथवा भोजनकरने की इच्छावाला मनुष्य शीतल पानीको ॥ ३३ ॥ पीवै, पीछे अन्नोंको खावै, पीछे लंघन और देहको अत्यंत क्षोभित करनेवाले आदिकर्मको सेवै अथवा छर्दी को बढावै ॥ ३४ ॥ अनुदीर्णानदीर्णान्वा वातादीन्न विमुञ्चति ॥ स्नेहस्वेदावनभ्यस्य शोधनं वा निषेवते ॥ ३५ ॥ शुद्धो वाशुविदाहीनि भजते स्पंदनानि वा ॥ वातोल्बणास्तस्य मलाः पृथक् क्रुद्धा द्विशोथवा ॥ ३६ ॥ सर्वे वा रक्तयुक्ता वा महास्रोतोऽनुशायिनः ॥ ऊर्ध्वाधोमार्गमावृत्य कुर्वते शूलपूर्वकम् ॥ ३७ ॥ स्पर्शोपलभ्यं गुल्माख्यमुत्प्लुतं ग्रन्थिरूपिणम् ॥ और नहीं बढे हुये अथवा बढेहुये अधोवात आदिको न छोडे स्नेह और स्वेदका नहीं अभ्यास करके शोधन द्रव्यको सेवै ॥ ३५॥ पीछे शुद्धहुआ मनुष्य शत्रिही दाहकरनेवाले अथवा स्पंदनरूप पदार्थों सेवै, तिस मनुष्य के वातकी अधिकता वाले अथवा अलग अलग कुपितहुये अथवा दो दो मिलके कुपित हुये || ३६ | अथवा सब मिलके कुपितहुये अथवा रक्तसे मिलके कुपितहुये और आमाशय तथा पक्वाशयमें शयन करते हुये वात आदि दोष नीचेके और ऊपर के मार्गको आच्छादित करके और पहिले शूलको उपजाके ॥ ३७ ॥ पत्थर आदिके सदृश और ऊपरको प्राप्त हुए ग्रंथिरूप गुल्म रोगको करते हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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