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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४१२) __ अष्टाङ्गहृदयेहेतुरुक्॥पक्कोदुम्बरसंकाशः पित्तादाहोष्मपाकवान् ॥२४॥कफाच्छीतो गुरुः स्निग्धः कण्डूमान्कठिनोऽल्परक्॥कृष्णस्फोटा वृतः पित्तवृद्धिलिंगश्च रक्ततः ॥२५॥ कफवन्मेदसा वृद्धिर्मंद स्तालफलोपमः॥ मूत्रधारणशीलस्य मूत्रजः स तु गच्छतः॥ ॥ २६ ॥ अंभोभिः पूर्णतिवत्क्षोभंयाति सरुङ् मृदुः॥ मूत्र कृच्छ्रमधस्ताच्च वलयं फलकोशयोः ॥२७॥ वात, पित्त, कफ, रक्त, मैद, मूत्र, आंत, इन्होंकरके वृद्धिरोग सात प्रकारका है मूत्रज और अन्त्रज वृद्धिभी वातसेही उपजती है परन्तु यहां केवल हेतुभेद दिखाया है ॥२३॥ वायुकरके पूरितहुई मसकके समान स्पर्शवाला और रूखा और कारणके विना पाडावाला वृद्धिरोग वातसे उपजता है, पके गूलरके फलके समान कांतिवाला, और दाह उपताप पाकवाला वृद्धिरोग पित्तसे उपजता है ॥ २४ ॥ शीतल और भारी चिकना और खाजिवाला कठिन और अल्पपीडावाला वृद्धिरोग कफसे उपजता है, और फोडोंकरके व्याप्त और पित्तसे उपजा वृद्धिरोगके समान लक्षणों वाला ऐसा वृद्धिरोग रक्तसे उपजता है ॥ २५ ॥ और कफकी वृद्धिके समान लक्षणोंवाला कोमल तथा ताडके फलके समान उपमावाला वृद्धिरोग मेदसे उपजता है, और मूत्रके वेगको धारनेवाले मनुष्यके उपजी मूत्रजवृद्धि ॥ २६ ॥ गमन करनेवालेके पानीसे भरी हुई मसककी तरह शूलको करताहुआ और आप कोमल हुआ क्षोभको प्राप्त होता है तब मूत्रकृच्छू उपजता है और दोनों वृकणोंके नीचे वलय अर्थात् कडासा होजाता है ।। २७ ॥ वातकोबिभिराहारैः शीततोयावगाहनैः॥धारणे रणभावाध्व विषमाङ्गप्रवर्तनैः॥२८॥ क्षोभणैःक्षुभितोऽन्यैश्च क्षुद्रांत्रावयवं यदा ॥ पवनो द्विगुणीकृत्य स्वनिवेशादधो नयेत् ॥ कुर्याक्षणसन्धिस्थो ग्रन्थ्याभं इवयथुस्तदा ॥२९॥ उपेक्ष्यमाणस्य च मुष्कवृद्धिमाध्मानरुस्तंभवती स वायुः ॥प्रपीडितोऽन्तः स्वनवान्प्रयातिप्रध्मापयन्नेति पुनश्चमुक्तः॥३०॥ अन्त्रवृद्धि रसाध्योऽयं वातवृद्धिसमाकृतिः ॥ वातको कुपित करनेवाले भोजनों करके और शीतलपानीमें स्नान करनेकरके और बेगकाधारने तथा बढानेकरके और भार मार्गगमन विषमअंगके प्रवर्तनोंकरके ॥ २८ ॥ अन्य क्षोभणोंसे क्षुभितहुआ वायु क्षुद्र आंतोंके अवयवोंको अपने स्थानसे द्विगुणाभूत बना नाचेको प्राप्त जब करता है तब अंडसंधिमें स्थितहुआ वह वायु ग्रंथिके समान कांतिवाले शोजाको करता है ॥ २९ ॥ और नहीं चिकित्सित किया वृद्धिरोगके पहिले कहा वायु, अफरा, शूल, स्तंभसे संयुक्त वृद्धिको पोतोंमें For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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