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(४०८)
अष्टाङ्गहृदयेसब पिटिकाओंमें शराविका कच्छपिका जालिनी ॥ ३४ ॥ पुत्रिणी विदारिका ये पांचों दुःसह अर्थात् नहीं सहीजाती हैं, और ये बहुतसे मेदसे संयुक्त होती हैं, और विनता, अलजी, मसूारका सर्षपिका ये चार अल्प अल्प मेदवाली हैं, इसवास्ते सहनेके योग्य हैं ॥३५॥ और तिन पिटिकाओंमें प्रमेहके वशसे यथायोग्य दोषोंकी अधिकता जाननी और दुष्टमेदवाले मनुष्यके प्रमेहके विनाभी ये उपजती हैं ॥ ३६ ॥ जबत कलक्षण नहीं उत्पन्न होता है तबतक यह यथार्थ नहीं लक्षितकी जाती हैं और हलदीके समान वर्णवाला रक्तमूत्रको मूतै और प्रमेहके प्राग्रुपलक्षणोंसे वर्जित होवे, तिसको प्रमेह नहीं कहते हैं, किंतु रक्तपित्त कहते हैं, अब प्रमेहरोगके पूर्वरूपको कहते हैं ॥३७ ।।
स्वेदोऽङ्गगंधः शिथिलत्वमङ्गे शय्यासनस्वप्नसुखाभिषङ्गः॥ हृन्नेत्रजिह्वाश्रवणोपदेहो घनाङ्गता केशनखातिवृद्धिः ॥३८॥ शीतप्रियत्वं गलतालुशोषो माधुर्यमास्ये करपाददाहः॥भविष्यतो मेहगणस्य रूपं मूत्रेऽभिधावन्ति पिपीलिकाश्च ॥३९॥ पसीना,अंगमें गंध और अंगमें शिथिलपना और शय्या बैठना शयनकरना सुख इन्होंका इच्छा और हृदय, नेत्र, जीभ, कान, इन्होंमें लेप, और अंगोंकी मुटाई, बाल और नोंकी अत्यंत चढना ॥ ३८ ॥ और शीतलपदार्थमें प्रियता, गल और तालुका शोष और मुखमें मधुरपना, हाथ और पैरोंमें दाह और मूत्रमें पिपीलिका अर्थात् कीडियोंका दौडना ये सब होनेवाले प्रमेहसमूहके पूर्वरूप कहे हैं ॥ ३९॥
दृष्ट्वा प्रमेहं मधुरं सपिच्छं मधूपमं स्याद्विविधो विचारः॥ सन्तर्पणाद्वा कफसम्भवः स्यात्क्षीणेषु दोषेष्वनिलात्मको वा॥ ॥४०॥सपूर्वरूपाः कफपित्तमेहाः क्रमेण ये वातकृताश्च नेहाः॥ साध्या न ते पित्तकृतास्तु याप्याः साध्यास्तुमेदो यदि नाति दुष्टम् ॥४१॥ मधुर, और सालमलीका गूदके समान, और शहद के समान उपमावाले प्रमेहको देखके अनेक प्रकारका विचार करना, संतर्पणसे कफके प्रमेह उपजते हैं, अथवा दोषोंकी क्षीणताहानेसे वातज प्रमेह होते हैं ॥ ४०॥ अर्थात् कफके प्रमेह लंघन करके साध्य हैं, और वातके प्रमेह तर्पणसे साध्य हैं,ऐसे मंदबुद्धिवैद्य संदेहको प्राप्त होता है,और तीक्ष्ण बुद्धिवाला वैद्य कफके प्रमेहोंको और वातके प्रमेहों को अन्य लक्षणोंकरके जान सकता है पूर्वरूपसे सहित जो कफ पित्त वात इन्होंसे उपजे प्रमेह कहे हैं, ये सब साध्य नहीं हैं परंतु पूर्वरूपसे सहितभी पित्तके प्रमेह कष्टसाध्य हुआ मेद अत्यंत दुष्ट नहीं होवे तो पित्तके प्रमेह साध्य कहे हैं ॥ ४१ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपण्डितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसीहताभापाटीकायां
निदानस्थाने दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
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