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अष्टाङ्गहृदये
बीस प्रकारके प्रमेह हैं तिन्हों में दश कफ से पित्तसे छः और वायुसे चार और तीन प्रमेहों को मेद मूत्र कफको करनेवाला || ॥ जो प्रायतासे अन्न, पान, क्रीडा है वह उत्पन्न करता है और स्वादु, खट्टा, नमक, चिकना, भारी, कफकारी, शीतल ॥ २ ॥ नवीन अन्न, मदिरा, अनूपदेशका मांस, ईख, गुड, गायका दूध एकस्थान और एकआसनमें प्रीति और विधिकरके वर्जित शयन ये सब प्रमेहोंको उपजाते हैं || ३ || दूषित हुआ कफ वस्तिमें आश्रित होके और शरीरक्लेद, पसीना, मेद, रस, मांसको दूषित कर प्रेमेहों को करता है ॥ ४ ॥ कफआदि सौम्यधातुके नाशहुये पश्चात् मूत्रमें संश्रयवाले रक्तको दूषित कर कुपित हुआ पित्त प्रमेहों को करता है और दूषित हुआ वायु धातुओं को मूत्राधार के समीपमें प्राप्त कर और पीछे तिन धातुओं के क्षय होने प्रमेहों को करता है ॥ ५ ॥ साध्ययाप्यपरित्याज्या मेहास्तेनैव तद्भवाः ॥ समासमक्रियतया महात्ययतयापि च ॥ ६ ॥ सामान्यं लक्षणं तेषां प्रभू ताविलमूत्रता ॥ दोषदृष्याविशेषेऽपि तत्संयोगविशेषतः ॥७॥ मूत्रवर्णादिभेदेन भेदो मेहेषु कल्प्यते ॥
तिस संप्राप्ति विशेषकरके और सम असम क्रियापनाकरके और महा अत्ययपनाकरके कफ पित्त वातसे उपजे प्रमेहरोग क्रमसे साध्य कष्टसाध्य और असाध्य कहे हैं ॥ ६ ॥ अत्यंत सूत्रका आना तथा मैला मूत्र आना यह तिन प्रमेहों का सामान्य लक्षण है दोष और दूष्यके समानपनेमेंभी तिन प्रमेहों का संयोग विशेषता है ॥ ७ ॥ और मूत्रके वर्ण आदिभेदोंकर के प्रमेहों में भेदकी कल्पना की गई है ॥
अच्छं बहु सितं शीतं निर्गन्धमुदकोपमम् ॥ ८ ॥ मेहत्युदक मेहेन किञ्चिच्चाविलपिच्छिलम् ॥ इक्षो रसमिवात्यर्थं मधुरं चेक्षुमेहः ॥ ९ ॥ सान्द्रीभवेत्पर्युषितं सान्द्रमेही प्रमेहति ॥ सुरामेही सुरातुल्यमुपर्य्यच्छमधो घनम् ॥ १० ॥ संहृष्टरोमा पिष्टेन पिष्टवद्दहुलं सितम् ॥ शुक्राभं शुक्रमिश्रं वा शुक्रमेही प्रमेहति ॥ ११ ॥ सूत्राणन्सिकतामेही सिकतारूपिणो मलान् ॥ शीतमेही सुबहुशो मधुरं भृशशीतलम् ॥ १२ ॥ शनैः शनैः शनैर्मेही मन्दं मन्दं प्रमेहति ॥ लालातन्तुयुतं मूत्रं लालामेहेन पिच्छिलम् ॥ १३ ॥
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स्वच्छ बहुत ज्यादे सफेद शीतल गंध से रहित, पानी के समान उपमावाला ॥ ८ ॥ और कछुक • मैला और पिच्छिल मूत्रको उदकप्रमेहसे मनुष्य मृतता है और इक्षुप्रमेह से ईखका रसके समान और