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• निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३९९) घातमें पीला, दाह और शूलसे संयुक्त ॥ ४ ॥ और रक्त मूत्रको मनुष्य मूतता है, और कफसे उपजे मूत्राशतमें बस्तिस्थान, लिंगमें भारीपन और शोजा युक्त मनुष्य पिच्छिलरूप और बंधसे । संयुक्त मूत्रको मूतता है और सन्निपातसे उपजे मूत्राघांतमें तीनों दोषोंके लक्षण जानने ॥ ५॥
यदा वायुर्मुखं बस्तेरावृत्य परिशोषयेत् ॥ मूत्रं सपित्तं सकर्फ सशुक्रं वा तदा क्रमात् ॥६॥सञ्जायतेश्मरी घोरा पित्तागोरिव रोचना॥ श्लेष्माश्रया च सर्वा स्यादथास्याः पूर्वलक्षणम्॥७॥ बस्त्याध्मानं तदासन्नदोषेषु परितोऽतिरुक् ॥ मूत्रे च बस्त गन्धत्वं मूत्रकृच्छं ज्वरोऽरुचिः॥८॥ सामान्यलिङ्गरुङ्नाभि सेवनीबस्तिमूर्द्धसु ॥ विशीर्णधारं मूत्रं स्यात्तया मार्गनिरोधने ॥९॥ तव्यपायात्सुखं मेहेदच्छं गोमेदकोपमम् ॥ तत्संक्षोभात्क्षते सास्रमायासाच्चातिरुग्भवेत् ॥१०॥ जब वायु वस्तिके मुखको आच्छादितकर कभी मूत्रको कभी पित्तसहित मूत्रको कभी कफसहित मूत्रको कभी वीर्य्यसहित मूत्रको क्रमसे शोषता है॥६॥ तब घोररूप पथरी उपजती है जैसे पित्तके सूख जानेसे गायके शरीरमें गोरोचन और सबप्रकारकी पथरी कफके आश्रयवाली होती है. अब पथरीरोगके पूर्वरूपका लक्षण कहते हैं ॥ ७ ॥ बस्तिस्थानमें अफारा और तिससे निकटके दोषोंमें सब तर्फसे अत्यंत शूल और बकरेके गंधके समान गंधवाला मूत्र और मूत्रकृच्छ्र ज्वर और अरुचि ये सब पूर्व रूपमें होते हैं ॥ ८॥ और नाभी, सेवनी, बस्ति, शिर, इन्होंमें शूल, और तिस पथरी करके मूत्रके मार्गको रुकजानेमें छिन्नधारावाला मूत्र उतरता है ॥ ९॥ और मूत्रके मार्गसे तिस पथरीको दूर होजानसे निर्मल और गोमेदरत्नके समान उपमावाला मूत्र तो मूतता है और तिस पथरीके क्षोभसे जो क्षत होता है तिसके होजानेमें रक्तसहित मूत्रको मूतता है और परिश्रमसे अत्यंत शूल होता है यह पथरीका सामान्य लक्षण है ॥ १० ॥
तत्र वाताभृशाातों दन्तान्खादति वेपते ॥ मृद्गाति मेहनं नाभी पीडयत्यनिशं क्वणन् ॥ ११ ॥ सानिलं मुञ्चति शकृन्मुहुमेंहति बिन्दुशः॥ श्यावा रूक्षाऽश्मरी चास्य स्याञ्चिता कण्टकैरिव ॥ १२ ॥ पित्तेन दह्यते बस्तिः पच्यमान इवोष्मवान् ॥ भल्लातकास्थिसंस्थाना रक्तपीताऽसिताऽश्मरी ॥१३॥ बस्तिर्निस्तुद्यत इव श्लेष्मणा शीतलो गुरुः॥अश्मरी महती श्लक्ष्णा मधुवर्णाथवा सिता ॥१४॥
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