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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३९६) 'अष्टाङ्गहृदये अतीसारः समासेन द्विधा सामो निरामकः ॥ १३ ॥ सासृङ्गनिर त्रस्तत्रा गौरवादप्सु मज्जति । शकद्दुर्गन्धमाटोपविष्टम्भा तिंप्रसेकिनः ॥१४॥ विपरीतो निरामस्तु कफात्पकोऽपि मज्जति ॥ और संक्षेपकरके आमवाला और आमसे रहित इन भेदों करके अतिसार दोप्रकारका है ॥ १२ ॥ तथा एक रक्तवाला है दूसरा रक्तसे वर्जित है और आटोप विष्टंभ प्रसेक इन्होंवाले मनुष्य के उपजे आमातिसार में निकसाहुआ विष्ठा भारीपनसे जल में डूबजाता है ॥ १४ ॥ और आटोपआदिकरके रहित मनुष्यके पक्कातिसारमें निकसा विष्ठा जलमें तिरता रहता है, परन्तु कफके संयोगसे पका हुआभी विष्ठा जलमें डूबजाता है ॥ अतीसारेषु यो नातियत्नवान्ग्रहणीगदः ॥ १५ ॥ तस्य स्यादग्निविध्वंसकरैरत्यर्थ सेवितैः ॥ सामं शकृन्निरामं वा जीर्णे येनातिसार्यते ॥ १६ ॥ सोऽतिसारोऽतिसरणादाशुकारी स्वभावतः॥ और जो अतिसाररोगोंमें यत्नवाला मनुष्य नहीं रहता है तिस्के ग्रहणीरोग उपजता हैं ॥१५॥ और व्यतिसारसे रहित मनुष्यके अग्निको विध्वंस करनेवाले पदार्थोंको अत्यन्त सेवनेसे ग्रहणी रोग होता है और जिसकरके भोजनके जीर्णपने में आमसे सहित तथा रहित विष्टा निकलता है ॥ १६ ॥ वह अतिसार अत्यन्त सरण होनेसे स्वभावकरके शीघ्रकारी हो जाता है || सामं सान्नमजीर्णेने जीर्णे पक्कं तु नैव वा ॥१७॥ अकस्माद्वा मुहुर्बद्धमकस्माच्छिथिलं मुहुः॥ चिरकृद्ग्रहणीदोषःसञ्चयाच्चोपवेशयेत् ॥ १८ ॥ स चतुर्धा पृथग्दोषैः सन्निपाताच्च जायते ॥ और नहीं जीर्णहुये अन्नमें कदाचित् आमकरके सहित कदाचित् अन्नकर्के सहित मल निक• सता है और जीर्णहुये अन्नमें कदाचित् पक्क हुआ मल निकसता है कदाचित नहीं निकसता है ॥ १७ ॥ अथवा आपही बारंबार बन्धाहुआ और आपही वारंवार शिथिलरूप मल निकसता है और वह ग्रहणदोष चिरकालमें करता है और संचय होनेसे मलको निकालता है ॥ १८ ॥ और वह ग्रहणीदोष वात, पित्त, कफ, सन्निपातके भेदोंसे चार प्रकारका है और तिस ग्रहणीरोपूर्वरूपको कहते हैं ॥ प्रापं तस्य सदनं चिरात्पचनमम्लकः ॥ १९ ॥ प्रसेको वक्र वैरस्य मरुचिस्तृकमो भ्रमः ॥ आनद्धोदरता छर्दिः कर्णवेडोऽन्त्रकूजनम् ॥ २० ॥ सामान्यं लक्षणं कार्यं धूमकस्तमको ज्वरः ॥ मूर्च्छा शिरोरुग्विष्टम्भः स्वयथुः करपादयोः ॥ २१ ॥ अंगकी शिथिलता और चिरकालसे अन्नका पकना और मुखमें अम्लरसका स्वाद ॥ १९ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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