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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४६) अष्टाङ्गहृदयेप्रदीपग्रहनक्षत्रदन्तदैवतचक्षुषाम् ॥५४॥ पतनं वा विनाशो वा भेदनं पर्वतस्य च ॥ कानने रक्तकुसुमे पापकर्मनिवेशने ॥ ५५ ॥ चितान्धकारसम्बाधे जनन्याश्च प्रवेशनम् ॥ पातः प्रासादशैलादेर्मत्स्येन ग्रसनं तथा ॥ ५६ ॥ काषायिणामसौम्यानां नग्नानां दण्डधारिणाम् ॥ रक्ताक्षाणां च कृष्णानां दर्शनं जातु नेष्यते ॥ ५७॥ और शिरमें वंश और लताआदिका जमना अथवा शिरमें पक्षियोंका ॥ ४८॥ घोसला अथवा शिरका मुंडन और काक, गीध आदिकरके घूमना और प्रेत, पिशाच, स्त्री, द्रविड, आंध्र, गवाशन अर्थात् गायके मांसको खानेवाला जीव इन्होंकरके परिवृतपना ॥ ४९॥ और वेत, लता, वंश, तृण, कांटा, करके आच्छादित होना द्वारकी प्राप्ति न होना और छिद्रों तथा श्मशानमें शयन धूली और भस्मका पडना ॥ ५० ॥ जल, कीचड, कूआ, तालाब आदियोंमें डूबना और शीघ्र स्त्रोत करके हरण और नाचना, बाजा, गान और लालमाला और लालवत्रका धारण ॥५१॥ अवस्था और अंगकी वृद्धि और मालिश और विवाह और दाढीका मुंडाना और पका अन्न स्नेह, मदिराका पान और वमन तथा विरेचन ॥ १२ ॥ सोना और लोहाका लाभ, कलह, बंध और पराजय और जूतीजोडाका नाश, दोनों पैरकी चौंका पडना ॥ ५३ ॥ अत्यंत आनंद, कुपितहुये पिता आदि करके झिडकना और दीपक, ग्रह, नक्षत्र, दांत, देवताकी मूर्ति, नेत्र इन्होंका ॥ ५४ ॥ पडना अथवा विनाश, पर्वतका भेदन और लाल फूलोंवाले क्नमें प्रवेश करना और पाप करने वालोंके स्थानमें प्रवेश करना ॥ ५५॥ और चिता, अंधकारकरके आच्छादित स्थान और माता इन्होंमें प्रवेशकरना और हवेली और पर्वत आदिका पडना और मगर मच्छकरके अपने शरीरका प्रसना ॥ १६ ॥ काषाय वस्त्रोंको धारण करनेवाले और क्रोधी नंगे और दंडको धारण करनेवाले लाल नेत्रोंवाले और कृष्णवर्णवाले मनुष्योंका देखना ये सब स्वप्नेमें अत्यंत बुरे हैं ।। ५७ ।। कृष्णा पापाननाचारा दीर्घकेशनखस्तनी ॥ विरागमाल्यवसना स्वप्नकालनिशा मता ॥ ५८॥ मनोवहानां पूर्णत्वात्स्रो तसां प्रबलैर्मलैः ॥ दृश्यन्ते दारुणाः स्वप्ना रोगी यैर्याति पञ्चताम् ॥ ५९॥ अरोगः संशयं प्राप्य कश्चिदेव विमुच्यते॥ काले वर्णवाली और पापरूप मुखवाली और पापरूप आचारवाली और लंबेरूप बाल, नख, चूंचीवाली और विगत रागवाली माला और वत्रोंको धारण करनेवाली स्त्री स्वप्नमें दखै तो मुनिजनोंने कालनिशाकी समान मानी है ॥ ५८ ॥ मनको बहनेवाले स्रोतोंको अत्यंत मलों, करके पूरित होनेसे दारुणरूपस्वप्नमें दीखते हैं, जिन्होंकरके रोगी मृत्युको प्राप्त होते है ॥ ५९॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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