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शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ३४५ )
• दक्षिण दिशाको स्वप्नमें गमन करे; वह रोगी राजयक्ष्मारोगकरके मृत्युको प्राप्त होता है और जिस मनुष्यको स्वमें हृदय के मध्य कांटों आसे संयुक्त लता अथवा वंश अथवा ताडकी उत्पत्ति होवे ४२ वह मनुष्य गुल्मरोगकरके शीघ्र मृत्युको प्राप्त होता है और ज्वालासे रहित अग्निमें हवन करता हुआ और घृतकरके अभ्यक्त और वस्त्रोंसे नंगे जिस मनुष्यकी छाती में ॥ ४३ ॥ कमल स्वप्नमें जामै, वह कुष्ठकरके मरता है और जो मनुष्य चांडालोंके संग स्वप्नमें अनेक प्रकार के स्नेहका पान करता है वह प्रमेह रोगकरके मरजाता है ॥ ४४ ॥
उन्मादेन जले मजेद्यो नृत्यत्राक्षसैः सह ॥ अपस्मारेण योमत्यो॑ नृत्यन्प्रेतेन नीयते ॥ ४५ ॥ यानं खरोष्ट्रमार्जारकपिशाईलस्करैः ॥ यस्य प्रेतैः शृगालैर्वा स मृत्योर्वर्त्तते मुखे ॥ ४६ ॥ अपूपशष्कुलर्जिग्ध्वा विबुद्धस्तद्विधं वमन् ॥ न जीवत्यक्षिरोगाय सूर्येन्दुग्रहणेक्षणम् ॥४७॥ सूर्याचन्द्रमसोः पातदर्शनं दृग्विनाशनम् ॥
जो मनुष्य राक्षसों के संग नृत्य करताहुआ जलमें गोता मारता है वह उन्माद रोगकरके मरजाता है. और जो स्वप्नमें नाचताहुआ प्रेतकरके गृहीत किया जाता है वह अपस्मारकरके मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ४५ ॥ जिस मनुष्यका गधा, ऊंट, बिलाव, वानर सिंह, शूकर, प्रेत, गदिड, इन्होंके संग स्वप्नमें गमन होवे वह मनुष्य शीघ्र मरजाता है ॥ ४६ ॥ स्वप्न में मालपूओं को अथवा रियोंको खाके पीछे जागके मालपुआ और पूरीरूपही छर्दी करदेवे वह नहीं जीवता है और स्वप्न में सूर्य और चंद्रमाके ग्रहणका देखना नेत्ररोगके अर्थ कहा है ॥ ४७ ॥ सूर्य और चंद्रमाको पतितहुये को देखना दृष्टीको नाशता है ॥
मूर्ध्नि वंशलतादीनां सम्भवो वयसां तथा ॥ ४८ ॥ निलयो मुण्डता काकाद्यैः परिवारणम् ॥ तथा प्रेतपिशाचस्त्रीद्रवि डान्ध्रगवाशनैः ॥ ४९ ॥ सङ्गो वेत्रलतावंशतृणकण्टकसङ्कटे ॥ श्वश्रश्मशानशयनं पतनं पांसुभस्मनोः ॥ ५० ॥ मज्जनं जलपादौ शीघ्रेण स्रोतसा हृतिः ॥ नृत्यवादित्रगीतानि रक्तस्त्रग्वस्त्रधारप्यम् ॥५१ ॥ वयोऽङ्गवृद्धिरभ्यङ्गो विवाहः श्मश्रुकर्मच ॥ पक्वान्नस्नेहमद्याशः प्रच्छर्दनविरेचने ॥५२॥ हिरण्यलोहयोर्लाभः कलिर्बन्धपराजयौ ॥ उपानद्युगनाशश्च प्रपातः पादचर्मणोः ॥ ५३॥ हर्षो भृशं प्रकुपितैः पितृभिश्चावभर्त्सनम् ॥
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