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॥ श्रीः॥
विज्ञापना।
भरतखण्डभूमण्डलनिवासी आयुर्वेदाभिमानी वैद्यविद्योपजीवी समस्त वैद्यजनोंको यह प्रार्थना विदित हो कि, सप्रतिकालमें सर्व मनुष्यों को जिन जिन वस्तुनकी अपने शरीररक्षणके सामग्रीनमें • अपेक्षा रहती है. तिन तिन वस्तुनके शिरोमणीभूत आयुर्वेदकी कही औषधयोगसामग्रीकी अधिक अपेक्षा है यह तो सर्व सहृदयजनोंको विदितही है.
भारतीयजनहो ! अपरिमेयशक्तिमान् भगवान्ने जीवोंको जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थनके साधनके अर्थ यह मानवीय शरीर दिया है. तहां इस मनुष्य देहसे पुरुषार्थ चतुष्टयसाधनत्वमें यह प्रमाण है कि
धर्मार्थकाममोक्षाणा शरीरं साधनं स्मृतम् । यो० तो इस शरीरसे जो जंतु पूर्वोक्त पुरुषार्थनमें से एकभी पुरुषार्थको साधन करे वही जन्तु भगवानके उपकार मानता है ऐसा हम समझतेहैं. , और मनुष्य इस शरीरके स्वस्थपनसे सब कुछ कार्य करसक्ते हैं यह तो सबकोही भनुभवसिद्धही है.
जिस शरीरके अर्थ सब जीवमात्र नानाप्रकारके कार्योंमें लगरहे हैं जैसे कि "खादेम मोदे. महि" अपरं च जिस शरीरके अध्रुवपनेको सर्व जीव जानतेभी हैं तथापि ईश्वरने ऐसा कुछ इसके ऊपर मोह रखदिया है कि, जिस मोहके प्रभावते आकंठपर्यंतभी प्राण आजाते हैं यमदूत अपना स्वरूप दिखाने लगते हैं प्राण अपानवायु इकडे होकर अपना स्थान छोडिकै बाहर जानेमें प्रयत्न करते हैं, श्वास होगयाहै, त्रिदोषकी पूर्ण स्थिति होगईहै, तथापि जीव विचार करता है कि, मैं
औरभी थोडे दिनतक इस शरीरमें रहकर संसारसुखका अनुभव पूर्ण लेलेऊ, देखो सजन जनहो इस शरीरके परतः और दूसरा कछुभी प्रिय नहीं है, यहां एक कवि ऐसा कहगये हैं कि,....
पुनराः पुनर्वित्तं न.शरीरं पुनः पुनः। वृ० चा० इस लिए उचित है कि जिसकरिके इस शरीरका रक्षणोपाय बने उस उपायका सेवन करना. ___ भूमण्डलमें अमूल्यशरीरके रक्षणार्थ आयुर्वेदके विना दूसरा उपाय नहीं है, आयुर्वेदभी वेदांगभूत है ही जैसा कि चरणव्यूहमें कहा है
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