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शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३२९) णिको ५६ ॥ यो ललाटात्स्तुतस्वेदः श्लथसन्धानबन्धनः ॥ उत्थाप्यमानः संमुह्येद्यो बली दुर्बलोऽपि वा ॥ ५७ ॥ उत्तान एव स्वपिति यः पादौ विकरोति च ॥ शयनासनकुड्यादौ योऽसदेव जिघृक्षति ॥ ५८ ॥ अहास्यहासी संमुह्यन् यो लेढि दशनच्छदौ ॥ उत्तरोष्टं परिलिहन्फत्कारांश्च करोति यः ॥ ५९॥ यमभिद्रवति च्छाया कृष्णा पीताऽरुणाऽपि वा ॥ भिषग्भेषजपानान्नगुरुमित्रद्विषश्च ये ॥ वशगाः सर्व एवैते विज्ञेयाः समवर्तिनः ॥६०॥
और जो पैरोंको घसीटते हुए समान और ढीलेकंधोंवाला मनुष्य पृथ्वीमें परिसर्पित होता है ॥ ५३॥ जो मनुष्य पथ्यरूप और बहुतसे अन्नको नित्यप्रति खाताहुआ बलसे हीन होवे और जो अल्पभोजनको करताहुआ मनुष्य बहुतसे विष्टा और मूत्रको उतारै और जो बहुतसे अन्नको खाताहुआ मनुष्य अल्परूप मूत्र और विष्टाको उतारै ॥ ५४॥ जो अल्प भोजनको करनेवाला अथवा कफसे पीडित लंबे श्वासको लेबै, तथा चेष्टा करै और जो लंबे श्वासको लेकर पीछे छोटे श्वासको लेवे, पीछे छोटे श्वासको लेकर दुःखित होवे ॥ ५५ ॥ जो छोटे श्वासको लेकर पीछे विषम कर नाडियोंके द्वारा अत्यंत स्पंदित करै और जो हाथोंके पश्चाद्भागमें स्थित हुये अंगविशेषोंको त्यागकर कष्टसे शिरको उत्क्षेपित करै ।। ५६ ॥ जो मस्तकसे झिरतेहुये पसीनोंवाला और शिथिल हुये संधियोंके बंधनोंवाला और जो बलवान् अथवा दुर्बल मनुष्य उत्थाप्यमानहुआ मोहको प्राप्त होवै ॥९७॥ जो सीधाही शयन करें और पैरोंको विकृत करै और जो शयन, आसन, भीत, इन आदिमें अविद्यमान वस्तुको गृहीत करनेकी इच्छा करै ॥ ५८ ॥ जो हास्यका विषयके अभा वमें अत्यंत हँसताहुआ और मोहित होता हुआ मनुष्य ओष्ठोंको चाटता है और जो उत्तरोष्ठको चाटता हुआ मनुष्य फूत्कारोंको करे ॥ १९ ॥ जिसमनुष्य के अर्थ काली और पीली अथवा लाल छाया चारोंतर्फसे दौडै और वैद्य, औषध, पान अन्न गुरु, मित्र इन्होंसे वैर करनेवाले । ये सब मनुष्य धर्मराजके वशमें प्राप्त हुये कहे हैं ॥ ६० ॥
ग्रीवाललाटहृदयं यस्य स्विद्यति शीतलम् ॥ उष्णोऽपरः प्रदेशश्च शरणं तस्य देवता ॥६१ ॥ योऽणुज्योतिरनेकायो दुश्छायो दुर्मनाः सदा ॥ बलिं बलिभृतो यस्य प्रणीतं नोपभु अते ॥६२ ॥ निनिमित्तञ्च यो मेधां शोभामुपचयं श्रियम् ॥ प्राप्नोत्यतो वा विभ्रंशं स प्राप्नोति यमक्षयम् ॥ ३३॥ गुणदो
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