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(३२०)
अष्टाङ्गहृदयेश्वास और खांसीसे मनुष्यको मारदेता है ॥ ५६ ॥ दो फण दोअपांग दो विधुर दो नोल दो मन्या दो कृकाटिक दो अंस दो अंस फलक दो आवर्त दो विटप चार ऊर्वी दो कुकुंदर ॥१७॥ दो जानु लोहित चार अणी चार दो कक्षाधर चार कूर्च दो कर्पर ऐसे चौआलिस मर्म विद्ध होजावे तो अंगमें विकलताको करतेहैं ॥ ५८ ॥ परंतु चाटसे कदाचित येभी प्राणोंको हरते हैं और चार कर्चशिर दो गुल्फ दो मणिबंध ये आठ मर्म विद्ध होजावें तो पीडाको करते हैं।
तेषां विटपकक्षाधृगूळः कूर्चशिरांसि च॥ द्वादशांगुलमानानि द्वयले मणिबन्धने ॥६०॥ गुल्फौ च स्तनमूले च व्यङ्गलौ जानुकूर्परौ ॥ अपानबस्तिहृन्नाभिनीलाः सीमन्तमातृकाः ॥६१॥ कूर्चशृङ्गाटमन्याश्च त्रिंशदेकेन वर्जिताः ॥ आत्मपाणितलोन्मानाः शेषाण्यागुलं वदेत् ॥६२॥ पञ्चाशत्षट् च मर्माणि तिलबीहिसमान्यपि ॥ इष्टानि मर्माण्यन्येषां चतुओंक्ताः शिरास्तु याः ॥६३ ॥ तर्पयन्ति वपुः कृत्स्नं ता मर्माण्याश्रितास्ततः॥ तत्क्षता क्षतजात्यर्थप्रवृत्तेर्धातुसंक्षय॥६४॥ वृद्धश्चलो रुजस्तीवाः प्रतनोति समीरयन् ॥ तेजस्तदुद्धतं धत्ते तृष्णाशोषमदभ्रमान् ॥६५॥ स्विन्नस्रस्तश्लथतनुं हरत्येनं ततोऽन्तकः ॥ तिन ममोंके गध्यमें विटप, कक्षाधर, ऊर्वी, कूर्चशिर, ये बारह मर्म बारह अंगुलप्रमागवाले हैं और दोनों मणिबंध मर्म दो अंगुलप्रमाणवाले हैं ॥६० ॥ और दोनों गुल्क और दोनों स्तनमूल ये चारों मर्मभी दो अंगुलपरिमाणवाले हैं और दोनों जानू और दोनों कूपर ये चार मर्म तीन अंगुलपरिमाणवाले हैं और गुद, बस्ति, हृदय, नाभी, नील, सीमंत, मातृक ॥ ६१ ॥ कूर्च, शंगाटक, मन्या ये उनतीस मर्म अपने हाथके तलुएके परिमाणवाले हैं और शेष रहे मौंको आधे अंगुल परिमाणवाले कहो ॥ ६२ ॥ शेष रहे छप्पन मर्म हैं, और अन्य ऋषियोंके मतमें तिल और बीहिके समान परिमाणवालेभी बहुतसे मर्म माने हैं और जो चार प्रकारवाली शिरा पहिले कही है ॥ ६३॥ वे मर्मों में आश्रित हुई सकल शरीरको तृप्त करती है और तिन ममोंके क्षतसे और रक्तकी अतिप्रवृत्तिसे धातुओंके क्षय हुये पीछे ॥ ६४ ॥ बढाहुआ वायु पित्तकी वृद्धिको प्राप्त करताहुआ तत्रि पीडाओंको फैलाता है और तृषा शोष मद भ्रमको करता है ॥ ६५ ॥ पीछे पसीनाकरके शिथिल शरीरवाले तिस मनुष्यकी मृत्यु होजाती है ।
वर्द्धयेत्सन्धितो गात्रं मर्मणाभिहते द्रुतम् ॥ ६६ ॥ छेदना सन्धिदेशस्य सकुचन्ति शिरा ह्यतः ॥ जीवितं प्राणि
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