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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३१६) अष्टाङ्गहृदयेहैं ॥ २७ ॥ कंठकी नाडीके दोनोतर्फ जीभ और नासिकामें प्राप्त हुई पृथक् पृथकू चार नाडियां हैं वे मातृकर्मम कहाते हैं तिन्होंमें चोट लगजावे तो मनुष्य मरजाता है ॥ २८ ॥ कृकाटिके शिरोग्रीवासन्धी तत्र चलं शिरः॥अधस्ताकर्णयो'निम्ने विधुरे श्रुतिहारिणी ॥ २९॥ फणावुभयतोघाणमार्ग श्रोत्रपथानुगौ ॥ अन्तर्गलस्थितौ वेधाद्गन्धविज्ञानहारिणी ॥३०॥ नेत्रयोर्बाह्यतोऽपाङ्गो भ्रुवोः पुच्छान्तयो रधः ॥ तथो परि भ्रुवोर्निम्नावावर्त्तावान्ध्यमेषु तु॥३१॥अनुकर्ण ललाटान्ते शौ सद्योविनाशनौ ॥ केशान्ते शङयोरूर्वमुक्षेपास्थ. पनी पुनः॥३२॥ध्रुवोर्मध्ये त्रयेऽप्यत्र शल्ये जीवेदनुते ॥ स्वयं वा पतिते पाकात्सद्यो नश्यति तूद्धते ॥ ३३ ॥ शिर और ग्रीवाकी संधिमें कृकाटिकनामवाले दो मर्म हैं तहां चोट लगजाय तो कंपसे संयुक्त शिर हो जाता है और दोनों कानोंके नीचे अप्रगट दो विधुरनामक मर्म हैं तहां चोट लगजाये तो शब्द नहीं सुनता है ॥ २९ ॥ नासिकामार्गके दोनों तर्फ और कानके मार्ग में अनुगत और गलके भीतर स्थित ऐसे फणनामवाले दो मर्म हैं इन्होंमें चोट लगजाये तो गंधका ज्ञान नहीं रहता है॥३०॥ नेत्रोंके बाहिरलीतर्फ अपांगनामवाले दो मर्म हैं और भ्रुकुटियोंके पुच्छांतके नचि तथा ऊपर निम्नरूप आवर्तसंज्ञक दो मर्म हैं तिन्होंमें चोट लगजावे तो मनुष्य अंधा होता है ॥ ३१ ॥ मस्तकके अंतमें कानके समीप शंखनामवाले दो मर्म हैं तिन्होंमें चोट लगजावे तो तत्काल मनुष्य मरजाता है, केशोंके अंतमें और शंखमर्मके ऊपर उत्क्षेपनामवाले दो मर्म हैं ॥ ३२ ॥ और दोनों चुकुटियोंके मध्यमें स्थपनीमर्म हैं इन तीनोंमें वेध होवे तो जबतक शल्यको नहीं निकासै तबतक अथवा पाकको प्राप्त होके आपही शल्य निकसजाय तबतक मनुष्य जीवता है और जो इनमर्नामें प्राप्त हुये शल्यको निकासे तो मनुष्य तत्काल मरता है ॥ ३३ ॥ जिह्वाक्षिनासिकाश्रोत्रखचतुष्टयसङ्गमे ॥ तालुन्यास्यानिचत्वारि स्रोतसां तेषु मर्मसु ॥ ३४ ॥ विद्धः शृङ्गाटकाख्येषु सद्यस्त्यजति जीवितम्॥कपाले सन्धयः पञ्च सीमन्तास्तिर्य गर्ध्वगाः ॥३५॥ भ्रमोन्मादतमोनाशैस्तेषु विद्धेषु नश्यति॥ आन्तरो मस्तकस्योर्ध्वं शिरासन्धिसमागमः ॥ ३६ ॥ रोमावर्तोऽधिपो नाम मर्म सद्यो हरत्यसून् ॥ जीभ, नेत्र, नासिका, कान इन चार छिद्रोंके संगमरूप तालुकामें जीभ आदिको तृप्त करनेवाले चार स्रोत इकडेहुये स्थित हैं तिन्होंमें ॥ ३४ ॥ शृंगाटकनामत्राले चार मर्म हैं For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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