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शारीरस्थानं भाषाटीकासभेतम् ।
(३०९ )
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लोलः ॥ ९९ ॥ तिक्तं कषायं कटुकोष्णरूक्षमल्पं स भुङ्क्ते बलवांस्तथापि ॥ रक्तान्तसुस्निग्धविशालदीर्घसुव्यक्तशुक्लासितपक्षमलाक्षः ॥ १०० ॥ अल्पव्याहारक्रोधपानाशनेर्ण्यः प्राज्यायुर्वित्तो दीर्घदर्शी वदान्यः ॥ श्राद्धो गम्भीरःस्थूललक्षः क्षमावानार्यो निद्रालदीर्घसूत्रः कृतज्ञः ॥ १०१ ॥ ऋ जुर्विपश्चित्सुभगः सलज्जो भक्तो गुरुणा स्थिरसौहृदश्च ॥ स्वप्ने सपद्मान्सविहङ्गमालांस्तोयाशयान्पश्यति तोयदांश्च ॥ ॥ १०२ ॥ ब्रह्मरुद्रेन्द्रवरुणतार्क्ष्य हंसगजाधिपैः ॥ श्लेष्मप्रकृत यस्तुल्यास्तथा सिंहाऽश्वगोवृषैः ॥ १०३ ॥
कफ सोमरूप है, तिस हेतुसे सौम्यरूपवाला और गूढ़ तथा चिकनी तथा लिष्ट संधि, हड्डि, मांसवाला, क्षुधा, तृषा, दुःख, क्लेश, घामसे तप्त न होनेवाला, बुद्धिमान् सत्वगुणकी प्रधानतावाला, सत्यको बोलनेवाला, ॥ ९६ ॥ और प्रियंगु, दूव, शरका टुकडा, शस्त्र, गोराचन कमल, सोनेके समानवर्णवाला और लंबे बाहुओंवाला विस्तृत और पुष्ट छातीवाला और बडे मस्तक चाला घन और नील केशोंवाला ॥ ९७ ॥ कोमल अंगोंवाला सुंदर तथा विभक्त किये अवयवोंकर के सुंदरदेहवाला और पराक्रम रति, रस, वीर्य, पुत्र, नौकरकी बहुलतासे संयुक्त धर्मात्मा कदाचितूभी कठोर बचनको नहीं बोलनेवाला और वैरको गुप्तकरके चिरकालतक वर्तनेवाला ॥ ९८ ॥ और मदवाले हाथ के समान गमन करनेवाला और मेघ, मृदंग, सिंह, समुद्रके समान शब्दवाडा, स्मृतिवाला, अभियोगवाला और नम्रतावाला और बालक अवस्थामेंभी अतिरोदन नहीं करनेवाला चपलपनेसे रहित || ९९ || और कडुआ, कषैला, चर्चरा, गरम, रूखा, अल्प भोजन करनेवाला और बलवाला अंतमें रक्त, स्निग्ध, विशाल, लंबे और प्रकट शुक्रभाग और वामभागवाले पलकोंसे संयुक्त नेत्रोंवाल| ॥ १०० ॥ और बोलना, क्रोध, पान, भोजनकी अल्पतासे संयुक्तं और धनसे प्रभूतरूप आयु और संयुक्त दीर्घदर्शी दाता श्रद्धावान् गंभीर और अत्यंत देनेवाला, क्षमावान्, सज्जनतासे युक्त नींदकी अधिकता से संयुक्त, दर्घिसूत्री, कृतको जाननेवाला ॥ १०१ ॥ कोमल, विद्वान् और सुंदर ऐश्वर्यबाला लज्जावाला, गुरुओंका भक्त मित्रपनेकी स्थिरतासे संयुक्त, शयनकरनेमें कमलसे संयुक्त पक्षियों के समूह से संयुक्त तालाब बावडी और मेघको देखनेवाला ॥ १०२ ॥ और ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, वरुण, गरुड, हंस, हाथी, सिंह, घोडा, बैलके समान स्वभाववाले मनुष्य कफकी प्रकृतिवाले होते हैं ॥ १०३ ॥
प्रकृतीद्वय सर्वोत्था द्वन्द्वसर्वगुणोदये ॥ शौचास्तिक्यादिभिश्चैवं गुणैर्गुणमयीं वदेत् ॥ १०४ ॥
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