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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । और पकेहये तालके सदृश और सुखपूर्वक अंकुरको प्राप्त होनेवाला अतिपीडासे रहित स्थानहोवे तब सम्यक् दग्ध जानना, दुर्दग्ध अतिदग्धमें प्रमादकरके दग्ध हुयेकी तरह सव लक्षण जानने ॥ ४६॥
चतुर्धा तत्तु तुत्थेन सह तुत्थस्य लक्षणम् ॥
त्वग्विवर्णोष्यतेऽत्यर्थं न च स्फोटसमुद्भवः॥४७॥ . वह प्रमाददग्ध चार प्रकारका है, तिन्होंमेंसे तुत्थके समान दग्ध लक्षणके साथ दग्ध हुआ कदा चित सम्यक्दग्धके लक्षणवाला कदाचित् दुरदग्धके लक्षणवाला कदाचित्अतिदग्धके लक्षणवाला तुत्थदग्धलक्षणोंवाला होता है और त्वचाका बर्ण बदल जाना और अत्यंत दाहसे संयुक्त और फुनसियोंकी उत्पत्ति नहीं होनी यह तुत्थका लक्षणहै, जो अग्निकरके कछुक स्पर्शत किया जावे तिसको तुत्थदग्ध कहतेहैं ॥ ४७॥
सस्फोटदाहतीब्रोषं दुर्दग्धमतिदाहतः॥
मांसलम्बनसङ्कोचदाहधूपनवेदनाः॥४८॥ जहां फुनसियोंका होजाना और दाहयुक्त तीक्ष्ण पीडा होवै तिसको दुर्दग्ध जानो, और अतिदग्धसे मांसका लंबन और नाडियोंका संकोच और धूमांका निकसना पीडा ॥ ४८ ॥
शिरादिनाशस्तृणमूर्छावणगाम्भीर्यमृत्यवः॥
तुत्थस्याग्निप्रतपनं कार्यमुष्णश्च भेषजम् ॥ ४९ ॥ नस आदिका नाश, तृषा मूर्छा व्रणका गंभीरपना और मृत्यु ये सब उपजते हैं, और अग्निकरके बहुत अल्प दग्ध होवै तो अग्निसेही तप्त करना अथवा गरम औषध योग्य है ॥ ४९ ॥
स्त्यानेऽने वेदनात्यर्थं विलीने मन्दता रुजः॥
दुर्दग्धे शीतमुष्णश्च युज्यादादौ ततो हिमम् ॥ ५०॥ जो रक्त नहीं निकसता है तो अत्यंत पीडा होती है, जो रक्त निकस जाता है तो पीडा मंद होती है और दुर्दग्धमें प्रथम शीतल पीछे गरम औषधको प्रयुक्त करै ॥ ५० ॥
सम्यग्दग्धे तुगाक्षीरिप्लक्षचन्दनगरिकैः॥
लिम्पेत्साज्यामृतैरूवं पित्तविद्रधिवक्रिया ॥५१॥ सम्यग्दग्धमें वंशलोचन, पिलखन, चंचल, गेरू, गिलोय घृतसे लेप करै पीछे पित्तकी विद्रधीके समान क्रिया करे ॥ ११ ॥
अतिदग्धे द्रुतं कुर्यात्सर्वं पित्तविसर्पवत् ॥ स्नेहदग्धे भशतरं रूक्षं तत्र तु योजयेत् ॥५२॥
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