________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(२६४)
अष्टाङ्गहृदयेअग्निः क्षारादपि श्रेष्ठस्तदग्धानामसम्भवात् ॥
भेषजक्षारशस्त्रैश्च न सिद्धानां प्रसाधनात् ॥४०॥ खारसेभी अग्निकर्म अत्यंत श्रेष्ठहै क्योंकि अग्निकर दग्धहुये बवासीर आदिरोगोंका फिर संभव नहीं होता और औषध, खार, शस्त्र करके नहीं सिद्ध हुये रोगोंको साधन करताहै ॥ ४० ॥
त्वचि मांसे शिरास्नायुसन्ध्यस्थिषु स युज्यते ॥
मषाङ्गम्लानिमू तिमन्थकीलतिलादिषु॥४१॥ त्वचा, मांस, नाडी, नस, सन्धि, हड्डी तिन्होंमें यह अग्नि युक्त कियाजाता है, तिन्होंमें मसा, अङ्गाकी ग्लानि, माथाकी पीडा, अथवा मन्थ, कील, तिल आदियोंमें ।। ४१ ॥
त्वग्दाहो वर्तिगोदन्तसूर्यकान्तशरादिभिः॥
अशोभगन्दरग्रन्थिनाडीदुष्टवणादिषु ॥४२॥ रूईकी बत्ती, गोदन्त, सूर्यकांतमाणि, शर आदिकरके त्वचाका दाह करना योग्य है और बवासीर भगंदर, ग्रंथि, नाडिव्रण, दुष्टव्रण आदियोंमें ॥ ४२ ॥
मांसदाहो मधुस्नेहजाम्बवोष्ठगुडादिभिः॥
श्लिष्टवर्त्मन्यसृक्स्रावनील्यसम्यग्व्यधादिषु ॥४३॥ शहद, स्नेह, जांब ओष्ठ, गुड आदिकरके मांसको दग्ध करना और श्लिष्टवर्म, रक्तस्त्राव, नीली का दुष्टव्यध आदियोंमें ॥४३॥
शिरादिदाहस्तैरेव, न दहेत्क्षारवारिता ॥
अन्तःशल्यासृजो भिन्नकोष्ठान्भूरिव्रणातुरान् ॥ ४४ ॥ शहद, स्नेह जांब, ओष्ट, गुड आदिकरके शिराको दग्धकरना और खारकरके वारित किये और शरीरके भीतर शल्यवाले और निकसनेके योग्य रक्तको धारण करनेवाले और भिन्नकोष्ठोंवाले •भौर बहुतसे व्रणोंकरके पीडित मनुष्योंको आग्निसे दग्ध नहीं करै ॥ ४४ ॥
सुदग्धं घृतमध्वक्तं स्निग्धशीतैः प्रदेहयेत् ॥
तस्य लिङ्गं स्थिते रक्त शब्दवल्लसिकान्वितम् ॥४५॥ अच्छीतरह दग्ध हुये मनुष्यको घृत और शहदसे चुपड स्निग्ध औ शीतल मुलहटी आदि औषघोस लेपित करै, स्थित हुये रक्तमें शब्दकी तरह अर्थात बुब्दुद शब्दकी तरह और जलके किणकेकी समान आकृतिसे युक्त ॥ ४५ ॥
पक्वतालकपोताभं सुरोहं नातिवेदनम् ॥ प्रमाददग्धवत्सर्वं दुर्दग्धात्यर्थदग्धयोः ॥ ४६॥
For Private and Personal Use Only